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उज्जयिनी भी प्राचीन काल की महत्वपूर्ण नगरी है। अशोक, सम्प्रति आदि ने यहां पर राज्य किया है। यहाँ का मालव गण प्रसिद्ध रहा ही है। अवन्ति नरेश चण्डप्रद्योत महावीर स्वामी के मौसा ही थे। कालकाचार्य का सम्बन्ध भी उज्जैन से ही रहा है । चन्द्रगुप्त द्वितीय विक्रमादित्य की राजधानी उज्जयिनी ही थी। उत्तर पुराण के अनुसार भ. महावीरने भी यहाँ भ्रमण किया था।
धारा नगरी सरस्वती नगरी रही है। यहां का परमार वंश अधिक प्रसिद्ध रहा है। मुञ्ज वाक्पतिराज, सिन्धुल, भोज आदि राजाओं के काल में यह नगरी जैनधर्म का केन्द्र रही है। भोज का काल इस संदर्भ में विशेष उल्लेखनीय है। पप्रचरित के कर्ता महासेन, अमितगति, माणिक्यनंदी, नवनंदी, प्रभाचन्द्र, शान्तिसेन, धनञ्जय, धनपाल आदि जैनाचार्य इसी राजा के आश्रय रहे हैं। आशाधर भी परमार वंशीय राजाओं के सान्निध्य में साहित्य सृजन करते रहे।
कलचुरि और चन्देल राजाओं ने त्रिपुरी, और खजुराहो को कला की दृष्टि से अमर बना दिया। देवगढ़, महोबा, अजयगढ, चंदेरी, सीरोन, वानपुर, मदनपुर, ललितपुर, दुधई, चांदपुर, जहाजपुर, अहार, पपोरा, नदारी, गुरीला, खन्दारजी, थूबन, बूढी चन्देरी, गूढर, गोलकोट, पचराई, निवोडा, भरवारी, सोनागिरि, पावागिरी, रेशन्दीगिरि, द्रोणगिरी, कुण्डलपुर, गढा, बीनावारा, पजनारी, पटनागंज, नवागढ, पटेरा ग्वालियर, बडवानी, बहोरीबन्द, उर्दमऊ, बिलहरी, नरवर, धुवेला, टीकमगढ, लखनादोन आदि जैन स्थल कला की दृष्टि से उल्लेखनीय हैं। चन्देलकाल में ही देवगढ़ का निर्माण हुआ है। श्रीदेव, वासवचन्द्र, कुमुदचन्द्र आदि जैनाचार्य इसी समय के हैं। ग्वालियर के कच्छपघट और तोमरवंश ने ग्वालियर को भी एक प्रभावक जैन केन्द्र बना दिया।
बंगाल:
बंगाल में जैनधर्म का प्रचार-प्रसार बहुत पहले से रहा है। आचारांग सूत्र (२-८-३) से पता चलता है कि भ. महावीर ने सम्बोधिकाल में वज्जभूमि और सुब्रह्मभूमि के लाढ (राड) प्रदेश में विचरण किया था और वहाँ के खण्डहरों में वर्षावास भी किया था। इस विचरण काल में महावीर को लाढ़ देशीय व्यक्तियों और समुदायों द्वारा किये गये घनघोर उपसर्ग सहन करना पड़े। बाद में वे यहां के लोगों का हृदय-परिवर्तन करने में सफल हो गये। भगवतीसूत्र और कल्पसूत्र भी इस परम्परा को स्वीकार करते हैं। उनमें