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उल्लिखित पणियभूमि, जहाँ महावीर ने वर्षावास किया था, मानभूमि या वीर भूमि से पहिचानी जा सकती है। छोटा नागपुर, वर्दवान, वांकुरा, मिदनापुर आदि जिलों के भूभाग भी लाढ़ देश में अन्तर्भूत होते रहे है। भट्ट भावदेव क भुवनेश्वर प्रशस्ति (११ वीं शती) तथा कृष्ण मिश्र के प्रबोध चन्द्रोदय से पत चलता है कि यह लाढ देश बहुत पिछडा हुआ प्रदेश था । सुब्रह्मभूमि की पहिचा सिंहभूमि से की जाती है। महावीर का एक वर्षावास अष्टिकाग्राम में भी बताय जाता है जिसे कल्पसूत्र के टीकाकार ने वर्धमान नाम दिया है। इसे भी वर्दवान पहिचाना जा सकता है । बंगाल में वर्धमान ( चिटगांव के आसपास) स्थान नाम के रूप में बहुत परिचित है।
कहा जाता है कि बंगाल मूलतः अनार्य देश था जिसे जैनों नें आ बनाया । महावंश में भी बंगाल के अनार्य होने की कल्पना दिखाई देती है अशोक के समय तक यहाँ जैनधर्म निश्चित रूप से लोकप्रिय हो चुका था कल्पसूत्र के अनुसार भद्रबाहु के शिप्य गोदास ने यही एक गोदासगण स्थापि किया । उत्तरकाल मे उसकी चार शाखायें हो गईं— पुण्ड्रवर्धनीय, कोटिवर्षी ताम्रलिप्तीय और दासि खार्वतिक । लगभग ये सभी गण बंगाल में विकसि हुए है । भारहुत रेलिंग पर पुण्ड्रवर्धनीय गण अंकित भी हुआ है ।
लगभग पंचम शती का एक ताम्रपत्र मिला है जिसके अनुसार ए ब्राह्मण परिवार ने गुहनन्दिन को पञ्चस्तूपान्वयी जैन विहार के लिए भूमिद दिया था । यह भूमिदान वटगोहाली (गोहलभीटा) में दिया गया था । यह ताम्रप पहारपुर ( ४७८-७९ ई.) में प्राप्त हुआ है । वहाँ एक सर्वतोभद्र (चतुर्मुख प्रकार का जैन मन्दिर भी मिला है । मैनामती ( बंगला देश) में भी इ प्रकार की कुछ जैन मूर्तियां मिली है जो गुप्त और गुप्तोत्तरकाल की प्रर्त होती है। ह्यूनशांग ने भी बंगाल में जैनधर्म की लोकप्रियता का उल्ले किया है ।
बाद में यहाँ वैदिक और बौद्धधर्म को संरक्षण मिलने लगा । प बौर सेन वंश ने जैनधर्म को आश्रय दिया अवश्य पर शनैः शनैः बंगाल जैनधर्म बिहार की ओर आने लगा । सुहरोहोर (दीनापुर ) आदि स्थानों कुछ जैन मूर्तियां मिली है । वांकुरा, केन्दुआ, बारकोला, मानभूमि, च सांका, बोराम, बलरामपुर, आरसा, देवली, पाकबीरा, दुल्मी, झाल्दा, अम्बि नगर, चितगिरी, धारापात, पार्श्वनाथ, देवलिया, बर्दवान, सुन्दरवन म स्थानों पर १०-११ वीं शती की जैन मूर्तियां और स्थापत्य कला के आ प्रतीक उपलब्ध होते हैं।