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पप्पभट्टसूरि, मिहिरभोज, अश्वराज, आल्हणदेव, जयसिंह सिद्धराज, कुमारपाल आदि राजाओं का नाम इस सन्दर्भ में उल्लेखनीय है। वप्पसूरि, धर्मघोषसूरि, जिनदत्तसूरि, गुणचन्द्र, पमप्रभ, हेमचन्द्र, शीलगुणसूरि, कुमुदचन्द्र, दुर्गदेव नादि विद्वान इन्हीं राजाओं के काल में हुए। इन राजाओं ने अनेक जैन मन्दिरों और पुस्तकालयों का निर्माण किया। इसी काल में मेवाड़, कोट, सिरोही, जैसलमेर, श्रीमालनगर, जोधपुर, बीकानेर, जयपुर, अलवर, आदि प्रधान जैन केन्द्र रहे हैं। यहाँ दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों जैन परम्पराओं के संघों और गच्छों का विकास हुआ है। राजस्थान की जैनकला भी उल्लेखनीय रही है।'
मध्यप्रदेश :
वर्तमान मध्यप्रदेश प्राचीन विन्ध्यप्रदेश तथा मध्यभारत का सम्मिलित रूप है। महाकोसल और मालवा प्रान्त भी इसी में अन्तर्भूत हो जाता है। इस प्रदेश पर नन्द, मौर्य, खारवेल, गुप्त, राष्ट्रकूट, चन्देल, कलचुरि आदि राजाओं का राज्य रहा। इन राजाओं के राज्य में जैनधर्म भी फलता-फूलता रहा। विदिशा, उज्जैन, मन्दसौर, ग्वालियर, धारा आदि प्राचीन नगर जैनधर्म के केन्द्र थे। कालकाचार्य उज्जैन के ही थे जिन्होंने, कहा जाता है, प्रथमशती में गर्दभिल्ल को पराजित कराया।
इस प्रदेश में जैनधर्म के अस्तित्व का प्रमाण प्रारम्भ काल से ही मिलता है। चन्द्रगुप्त मौर्य, अशोक सम्प्रति, वृहद्रथ आदि राजाओं ने मध्यप्रदेश में जैनधर्म का प्रचार-प्रसार किया। गुप्तयुग में उसके इस प्रचार-प्रसार का रूप अधिक दिखाई पड़ता है। समुद्रगुप्त, कुमारगुप्त आदि राजाओं के काल में जैनधर्म और संस्कृति यहाँ विकसित होती रही। एरण (सागर जिला) पर गुप्त 'सम्राटों का अधिकार था। यहां की खुदाई में रामगुप्त के अनेक सिक्के मिले। यह रामगुप्त वही है जिसका उल्लेख विदिशा में प्राप्त जैन मूर्ति-लेखों में हुआ है।
विदिशा मध्यप्रदेश का प्राचीन ऐतिहासिक नगर रहा है । मौर्य तथ शुंग कालीन जैनधर्म का प्रमाण यहाँ मिलता है। आज भी यहाँ कुछ जैन मन्दिर और मुफायें कला के वैभव को द्योतित कर रही हैं। विदिशा को वेसनगर भी कहा गया है।
१. राजस्थान की जैन संस्कृति के विकास का ऐतिहासिक सर्वेक्षण-ॉ.कलशचन्द्र
एवं मनोहरलाल लाल, जिनवाणी, कौल-गुलाई, १९७५, पृ. १२५-१६८.