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श्रमण जैन भिक्षुओं के लिए वर्षावास का भी विधान है। बुद्ध ने भी उनका अनुकरण कर बौद्ध भिक्षुओं के लिए वर्षावास का नियम बनाया था। नियमों के विरुद्ध आचरण करने पर संघ से निष्कासित कर दिया जाता है अथवा दुराचरण की मात्रा कम होने पर प्रायश्चित्त दिया जाता है। निशीथ सूत्रों में प्रायश्चित्त के प्रकारों का विस्तार से वर्णन मिलता है। सामाचारिता :
साधु की दैनिक चर्या सम्यक् आचरण से परिपूर्ण रहती है। वह एकान्त में बने मंदिर स्थानक अथवा उपाश्रय में रहकर साधना करता है साधुओं के बीच में रहनवाले साधु के लिए कुछ ऐसे नियम बनाय गये है जिन्हें सामाचारी कहा गया है। उत्तराध्ययन आदि ग्रंथों में उनकी संख्या दस कर्ह गई है१. आवश्यकी - उपाश्रय से बाहर जाने पर आवश्यक कार्य से बाह
जा रहा हूँ' ऐसा कहना । २. नैषेधिकी - उपाश्रय में वापिस आने पर 'निसिही कहना। ३. आपृच्छना - गुरु से कार्य करने की आज्ञा लेना। ४. प्रतिपच्छना-दूसरे के कार्य के लिए पूछना। ५. छन्दना - भिक्षा-द्रव्य को बांटने की अनुमति मांगना। ६. इच्छाकार - गुरु की इच्छा के अनुसार काम करना। ७. मिथ्याकार - अपणी निन्दा करणा। ८. तथाकार - गुरु की आज्ञा स्वीकार करना। ९. अभ्युत्थान - सेवा-सुश्रूषा करना । १०. उपसम्पदा - ज्ञानादि की प्राप्ति के लिए किसी के पास जान
मुनि के लिए यह भी आवश्यक है कि वह अपनी दिनचर्या चार भा में विभक्त कर ले-प्रथम प्रहर में स्वाध्याय, द्वितीय में ध्यान, तृतीय में भिक्षा-च
और चतुर्थ में पुनः स्वाध्याय। इसी प्रकार रात्रि के प्रथम प्रहर में स्वाध्य द्वितीय प्रहर में ध्यान, तृतीय प्रहर में निद्रा और चतुर्थ प्रहर में पुनः स्वाध्य करना चाहिए। स्वाध्याय में वाचना, पृच्छना, परिवर्तना (पुनरावर्तन अनुप्रेक्षा तथा धर्मकथा इन पांच क्रियाओं का समावेश होता है ।
सामाचारी के सन्दर्भ में यह भी दृष्टव्य है कि जैन मुनि वर्षावार बीच आवागमन नहीं करते। वर्षाऋतु में उत्पन्न जीव-जन्तुओं की हिंसा से वर