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भी इसका मुख्य उद्देश्य है। महात्मा बुद्धने भी जैनों के इस वर्षावास नियम का अनुकरण कर अपने भिक्षुओं को वर्षावास का निर्धारण किया था। मार्गणा और प्ररूपणा :
कर्मबन्धन के कारण जीव संसार में भटकता रहता है। मोह के कारण वह अपने मूल स्वभाव को प्राप्त नहीं कर पाता। मार्गणा के द्वारा उस स्वरूप को खोजने का प्रयत्न किया जाता है। मार्गणा का तात्पर्य है-खोज।' जिन धर्म विशेषों के कारण जीवों की खोज की जाती है उन्हें 'मार्गणा' कहते हैं । इनकी संख्या चौदह है
१. गति ४ - नरक, तिर्यञ्च, मनुष्य और देव । २. इन्द्रिय ५ - स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु और कर्ण । ३. काय २ - त्रस और स्थावर। दो इन्द्रियों से लेकर पांच इन्द्रियों
तक के जीव त्रस कहलाते हैं और पृथ्वी, अप, तेज, वायु और वनस्पति में रहने वाले जीव स्थावर कहलाते हैं। वनस्पति के अन्तर्गत ही निगोदिया जीव आते हैं जो एक प्रवास में अठारह बार जन्म लेते
है और अठारह बार मरण करते हैं। ४. योग ३ - मन, वचन, काय वर्गणा निमित्तक आत्म प्रदेशों का
परिस्पन्दन योग कहलाता है। काय योग सात प्रकार का है - औदारिक, वैक्रियक, आहारक, औदारिकमिश्र, वैक्रियकमिश्र, आहारक मिश्र और कार्माण। मनोयोग और वचनयोग चार-चार प्रकार
का है - सत्य, असत्य, उभय और अनुभय । ५. वेद ३ - आत्मा में सम्मोह रूप प्रवृत्ति की उत्पत्ति होना वेद है।
वह नोकषाय के उदय से तीन प्रकार का होता है-स्त्रीवेद, पुरुषवेद, और नपुंसकवेद। कषाय ४- जो चारित्र को नष्ट करे वह कषाय है। इसके चार भेद हैं -क्रोध, मान, माया और लोभ। इनमें प्रत्येक के चार भेद हैं -अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यान, प्रत्याख्यान और संज्वलन । नोकषाय की संख्या नव कही गयी है-हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुंसकवेद। इस प्रकार कषाय के
कुल ४४४+९- पच्चीस भेद होते हैं। १. विशेष वर्णन के लिए देखिये-षट्कण्डागम (१.१.१.४.), गोमट्टसार जीवकांड (१४२)
मूलाचार, ११९७, राजवार्तिक, ९.७-११; पंचसंग्रह (प्राकृत), १५६