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करता है। बोधि प्राप्त करने के पूर्व भगवान बुद्ध ने स्वयं इन नियमों को पालते हुए तपस्या की थी। श्रमण-ब्राह्मणों के बीच इस प्रकार की तपस्या प्रचलित थी। अचेल काश्यप ने यही तपस्या की थी।' आजीविकों के साथ भी इसका उल्लेख मिलता है। भगवान् महावीरने भी इन्हीं का पालन किया । दशवकालिक के पांचवेंछठवें अध्याय में दिये गये जैन भिक्षुओं के नियमों से ये नियम मिलते-जुलते हैं।' मूलाचार में इन्हें उद्गम, उत्पादन, एषणा, संयोजन, अंगार, धूम आदि दोषों में गिना गया है। जो भी हो, पर इन नियमों से जैनधर्म के प्राचीनतम नियमों की एक झलक अवश्य मिलती है।
जैन भिक्षुओं के उपर्युक्त मूलगुणों और उत्तरगुणों का उल्लेख दशवैकालिक, सूत्रकृतांग, आचारांग आदि आगम ग्रन्थों में भी मिलता है। इन नियमों का पालन अहिंसादिवतों के परिपालन के लिए किया जाता है। स्नान, गन्ध, माला, पंखा, गृहस्थपात्र, राजपिण्ड, अंगमर्दन, दन्त-प्रक्षालन, शरीर-प्रमार्जन क्रीडा, छत्र, उपानह, उबटन, विरेचन, तेलमर्दन, शरीर-अलंकरण आदि कार्य जैन मुनि के लिए वर्जित हैं। सूत्रकृतांग के धर्म नामक नवम अध्ययन में श्रमण भिक्षुओं की कुछ दूषित प्रवृत्तिओं का उल्लेख मिलता है। असत्य, परिग्रह, अब्रह्मचर्य, अदत्तादान, वक्रता (माया), लोभ, क्रोध, मान, धावन, रंजन, वमन, विरेचन, स्नान, दन्तप्रक्षालन, हस्तकर्म आदि ऐसे ही दूषण हैं जो श्रमण भिक्षुओं के लिए वर्जित हैं। इसलिए इन्हें गणिसम्पदा का विधान किया गया है जो आठ प्रकार की है-१. आचार-सम्पदा, २. श्रुत-सम्पदा, ३. शरीर-सम्पदा, ४. वचनसम्पदा, ५. वाचना-सम्पदा, ६. मति-सम्पदा, ७. प्रयोगमति-सम्पदा और ८. मंग्रह-परिज्ञा-सम्पदा। साधु के लिए अधःकर्म (हीनतर कर्म) भी वजित हैं।
१. दीघनिकाय, प्रथम भाग, पृ. १६६ २. मज्झिमनिकाय, प्रथम भाग, पृ. ७७ ३. दीघनिकाय, प्रथम भाग, पृ. १६६. ४. मझिमनिकाय, माग १, पृ. ३८. ५. दशवकालिक : एक समीक्षात्मक अध्ययन, पृ. ९९; पिंडनियुक्ति भी देखिये । ६. मूलाचार, ६.२; लेखक का ग्रन्थ देखिये____ Jainism in Buddhist Literature, पृ. ११६-१७. ७. सूत्रकृतांग, १. ९. १२-२९. ८. भाचारांग, १ ९.१.१९. ९. दशवकालिक : एक समीक्षात्मक अध्ययन, पृ. १२५. दशाश्रुतस्कंध के तीसरे उद्देश में
तेतीस प्रकार की आशातनाओं का उल्लेख है जिनसे शान-दर्शन-वारित्र का हास होता है।