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ध्यानशतक में ध्यान से संबद्ध बारह विषयों पर विवेचन किया गया है-भावना, प्रदेश, काल, आसन, आलम्बन, क्रम, ध्येय, ध्याता, अनुप्रेक्षा, लेश्या, लिंन और फल ।' इन्हें हम धर्म ध्यान के अन्तर्गत रख सकते हैं। शुक्ल ध्यान में मन महदालम्बन से ध्यान का अभ्यास करता है और परमाणु पर स्थिर हो जाता है। केवली अवस्था तक आते-आते मन का अस्तित्व भी समाप्त हो जाता है। इसका विशेष अध्ययन अपेक्षित है।
मिल प्रतिमाएं :
श्रावक-प्रतिमाओं की तरह दशाश्रुतस्कन्ध (सातवां उद्देश) आरि ग्रंथों में भिक्षु-प्रतिमानों का भी उल्लेख मिलता है। उनकी संख्या बारह है१. मासिकी भिक्षु-प्रतिमा, २. द्विमासिकी भिक्षु-प्रतिमा, ३-७. यावत् सप मासिकी भिक्ष-प्रतिमा, ८-१०. प्रथम, द्वितीय व तृतीय सप्तरात्रिंदिवा भिक्ष प्रतिमा, ११. अहोरात्रि भिक्षु-प्रतिमा, और १२. एक रात्रिकी भिक्षु-प्रतिमा दिगम्बर परम्परा मे इन प्रतिमाओं का कोई वर्णन नहीं मिलता। इन प्रतिमा के माध्यम से भिक्षु विशेषतः अनशन और ऊनोदर तप का अभ्यास करता है।
मुनि इन सभी तप और परीषहों को इसलिए करता और सहता कि वह अपने स्वीकृत मार्ग से च्युत न हो सके और संचित कर्म मल को नष्ट क सके।' भगवान बुद्ध कायक्लेश को न पूर्णतः स्वीकृत कर सके और न अस्वीक कर सके। पालि साहित्य मे कुछ जैन भिक्षु-नियमों का उल्लेख मिलता है जिनक भगवान् बुद्धने आलोचना की। नग्न रहना, आहूत भिक्षा का त्याग, अपने लि आनीत भिक्षा का त्याग, अपने लिए पकाये भोजन का त्याग, निमंत्रण का त्यार दो भोजन करनेवालों के बीच से आनीत भिक्षा का त्याग, गर्भिणी स्त्रीद्वारा आनी भिक्षा का त्याग, दूध पिलातीस्त्रीद्वारा आनीत भिक्षा का त्याग, जहाँ कुत्ता खड़ा। ऐसे स्थान से आनीत भिक्षा का त्याग, न मांस, न मछली, न कच्ची शराब की न चावल की शराब (तुषोदक) ग्रहण करता है। वह एकही घर से जो भिव मिलती है लेकर लौट जाता है, एकही कौर खाने वाला होता है, दो घर से जोभिव ...दो ही कोर खाने वाला, सात घर सात कोर। वह एकही कलछी खाक रहता है, दो सात...। वह एक एक दिन बीच देकर भोजन करता है, दो दो दिन सात सात दिन...। इस तरह वह आधे-आधे महिने पर भोजन करते हुए विहा
१. ध्यान तक, २८.२९ २. वही,७० ३. मार्गाच्यवननिर्णराव परिसोढव्या परिषहा : तत्वावल, ९.८