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________________ ३११ प्रारम्भ से ही जैन और बौद्ध साधना अनुभववादी रही है। प्रत्यात्मसंक्च बिना कोई भी सिद्धांत उन्हें स्वीकार्य नहीं। दोनों साधनामों का लक्ष्य सर्वज्ञता की प्राप्ति है। सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान पूर्वक सम्यकचारित्र तथा प्रज्ञा, शील और समाधि उसकी प्राप्ति के साधन हैं। मिय्यादर्शन-मानचारित्र उसके बाधक तत्व है। उस बाधा को दूर करना साधना का परम लक्ष्य है। सम्यग्दर्शन की प्राप्ति के लिए सर्व प्रथम यह आवश्यक है कि साधक आत्मा के विभिन्न स्वरूपों को पहिचाने। जन संस्कृति में आत्मा के तीन रूप हैं- बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा। प्रथम स्थिति में साधक आत्मा और शरीर को एक द्रव्य मानकर पर पदार्थों में मोहित बना रहता है। उसके भवसागर में संचरण का यही मूल कारण है। द्वितीय स्थिति में यह मोहबुद्धि दूर हो जाती है और साधक उसके बाद तृतीय अवस्था अन्तरात्मा को प्राप्त कर लेता है। यहाँ तक पहुँचते-पहुंचते वह आत्मा के मूल स्वरूप को पहचानने लगता है और मैत्री, प्रमोद, कारुण्य, व माध्यस्थ्य भावनाओं को भाते हुए शुत्रु-मित्र में, मान-अपमान में, लाभ-अलाभ में, लोष्ठ-काञ्चन में समदृष्टिवान् हो जाता है। तदनन्तर बह निर्मल, केबल, शुद्ध, विविक्त और अक्षय परमात्मपद को प्राप्त कर लेता है। जैन ध्यान और योग साधना का यही लक्ष्य है। बौद्ध साधना में भी मगभग यही प्रक्रिया है। जो भेद है वह दृष्टव्य है। परवर्ती जैन साहित्य में ध्यान का एक अन्य वर्गीकरण भी मिलता है। वह चार प्रकार का है-पिण्डस्थ, पदस्थ, रूपस्थ, और रूपातीत। इसे हम तन्त्रशास्त्र से प्रभावित कह सकते हैं। प्रथम ध्यानों में आत्मा से भिन्न पादगलिक द्रव्यों का अवलम्बन लिया जाता है। इसलिए उसे सालम्बन ध्यान कहा जाता है। रूपातीत ध्यान का आलम्बन अमूर्त आत्मा रहता है जिसमें ध्यान, ध्याता और ध्येय एक हो जाते हैं। इसी को 'समरसता' कहा जाता है। प्रथम ध्यान स्थूल और सविकल्पक है तथा द्वितीय ध्यान सूक्ष्म और निर्विकल्पक है। स्थूल से सूक्ष्म और सविकल्पक से निर्विकल्पक की ओर जाना ध्यान का क्रमिक अभ्यास माना गया है।' १ देब्मेि, लेखक या च-न-बोडसपना का तुलनात्मक अध्ययन, जिनमणी, मान विशेषांक, जयपुर. २. ज्ञानार्गव, ३२.६.११; समाधि, १५ ३. तत्वार्थसूत्र, ७.११.१३; समाधि, ६ ४. मानसार, ३७; योजनाल, १०.५
SR No.010214
Book TitleJain Darshan aur Sanskriti ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain Bhaskar
PublisherNagpur Vidyapith
Publication Year1977
Total Pages475
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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