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बाल और योगसाधन:
___ध्यान और योग मुक्ति का मार्ग है जो सम्यग्दर्शन, सम्बग्ज्ञान बार सम्यक्चारित्र पर आधारित है। जैन साधना मात्मप्रधान साधना है। आत्मसिद्धि उसकी मूलभावना है। सयम और तप से उसकी प्राप्ति हो सकती है। मंत्री प्रमोद, कारुण्य और माध्यस्थ भावनाओं को अपनाते हुए वह समत्व योग को प्राप्त कर लेता है। इसे ही परमात्मपद कहने लगते है। इसके लिए समाधि की अवश्यकता होती है। सूत्रकृतांग मे समाधि के दस भेद कहे गये है जो मूलगुणों और उत्तरगुणों से मिलते-जुलते है। इसी को योग कहा जाता है। योगबिन्दु मे योग-फल की प्राप्ति के लिए पांच सोपान बताये गये है।
१. व्रतादि के माध्यम से कर्मों पर विजय पाना. २. भावना प्राप्ति. ३. ध्यान प्राप्ति. ४. समता प्राप्ति, और ५. सर्वज्ञत्व की प्राप्ति.
योग का मुख्य लक्ष्य सम्यग्दृष्टि को प्राप्त करना है। इस दृष्टि का विकास योगदृष्टिसमुच्चय मे आठ प्रकार से दिया गया है -मित्रा, तारा, दीप्रा, स्थिरा, कान्ता, प्रभा और परा। योगी को इस विकास तक पहुंचने के लिए तीन स्थितियों को पार करना पड़ता है
१. इन्ा योग, २. शास्त्रयोग, और ३. सामर्थ्यवोग।
उपर्युक्त आठ दृष्टियों की तुलना यम-नियमादि से की जा सकती है। ये दृष्टियाँ क्रमशः खेद, उद्वेग, क्षेप, उत्यान, प्रान्ति, अन्यमुद्, रुक् एवं असंग से रहित हैं और अद्वेष, जिज्ञासा, सुश्रुषा, श्रवण, बोध, मीमांसा, परिशुद्धि, प्रतियुत्ति व प्रवृत्ति सहगत हैं। ऋद्धि, सिद्धि आदि की प्राप्ति योग व समाधि के माध्यम से ही होती है। यह समाधि दो प्रकार की होती है- सालंबन और निरालबन। निरालम्बन ही निर्विकल्पक समाधि है। यही शुक्ल ध्यान और मोक्ष है। बौद्धधर्म में निर्दिष्ट चार किंवा पांच प्रकार के ध्यानों की तुलना यहाँ की जा सकती है।