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अवस्था' कहा जाता है। इनमें योगों का पूर्णतः निरोध हो जाने पर आत्मप्रदेश स्थिर हो जाते हैं। सच्चा योगी कर्मों के आवरण को क्षण भर में धुन डालताहै और निराकुलतामय, स्थिर और अविनाशी परम सुख को प्राप्त करता है।'
___ ध्यान के सन्दर्भ में ध्याता, ध्येय और ध्यानफल पर भी विचार किया जाता है। धर्मध्यान और शुक्लध्यान के योगी को 'ध्याता' कहते हैं। यह ध्याता प्रज्ञापारमिता, बुद्धिबलयुक्त, जितेन्द्रिय, सूत्रावलम्बी, धीर, वीर, परीषहजयी, विरागी, संसार से भयभीत और रत्नत्रयधारी होता है । सप्त तत्त्व और नव पदार्थ उसके ध्येय रहते हैं। पंच परमेष्ठियों का स्वरूप, विशुद्धात्मा का स्वरूप तथा रत्नत्रय व वैराग्य की भावनायें भी उसके ध्येय के विषय हैं। उन पर चिन्तन करता हुआ ध्याता ध्यान के अध्ययन से परम पद रूप ध्यान के फल को प्राप्त कर लेता है। अन्यथ, असम्मोह, विवेक और व्युत्सर्ग ये चार शुक्लध्यान के लक्षण है। शान्ति, युक्ति, मार्दव और आर्जव ये गर आलम्बन हैं। योग:
ध्याता का ध्येय के साथ संयोग हो जाने को ही योग कहते हैं। चित्तवृत्तियों के निरोध से साधक समाधिस्थ हो जाता है और तदाकारमय हो जाता है। पतञ्जलि के अष्टांगयोग की तुलना हम जैन योग साधना से निम्न प्रकार प्रस्तुत कर सकते हैं - १. यम - इसे जैनभर्म में महाव्रत कहा गया है जिनका वर्णन
पीछे किया जा चुका है। २. नियम - मूलगुणों और उत्तरगुणों का पालन करना। ३. कायक्लेश-विभिन्न प्रकार के तप करना। ४. प्राणायाम-जैनधर्म में मूलतः हठयोग को कोई स्थान नहीं, पर
उत्तरकाल में उसका समावेश हो गया। ५. प्रत्याहार-प्रतिसंलीनता-अप्रशस्त से प्रशस्त
चित्तवृत्तियों को छोड़ना। ६. धारणा -पदार्थ चिन्तन ७. ध्यान - उपर्युक्त चार प्रकार के ध्यान, और
८. समाधि - धर्मध्यान और शुक्लध्यान । १. योगासार प्रामृत, ९.९-११, १.५९ २. महापुराण, २१.८६-८८.