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शुक्लध्यान को समझने के लिये कुछ पारिभाषिक शब्दों को समझना आवश्यक है। यहाँ वितर्क' का अर्थ है श्रुतज्ञान । द्रव्य अथवा पर्याय, शब्द तथा मन, वचन-काय के परिवर्तन को 'बीचार' कहते हैं। द्रव्यको छोड़कर पर्याय को और पर्याय को छोड़कर द्रव्य को ध्यानका विषय बनाना 'अर्थ संक्रान्ति' है। किसी एक श्रुतवचन का ध्यान करते-करते वचनान्तर में पहुंच जाना और उसे छोड़कर अन्य का ध्यान करना 'व्यञ्जन संक्रान्ति' है। काययोग को छोड़कर मनोयोग या वचनयोग का अवलम्बन लेना तथा उन्हें छोड़कर काययोग का अवलम्बन लेना 'योगसंक्रान्ति' है।
निर्जन प्रदेश में चित्तवृत्ति को स्थिरकर, शरीर क्रियाओंका निग्रह कर मोहप्रकृतियों का उपशम या क्षय करने वाला ध्यान पृथक्त्ववितर्कवीचार ध्यान कहलाता है। इसमें ध्याता क्षमाशील हो बाह्य-आभ्यन्तर द्रव्य-पर्यायों का ध्यान करता हुआ वितर्क की सामर्थ्य से युक्त होकर अर्थ और व्यञ्जन तथा मन-वचन-काय की पृथक् पृथक् संक्रान्ति करता है।
मोहनीय प्रकृतियों को समूल नष्ट कर श्रुत ज्ञानोपयोग वाला वह साधक जब अर्थ-व्यञ्जन और योग संक्रान्ति को रोककर क्षीणकषायी हो वैडूर्यमणि की तरह निर्लिप्त होकर ध्यान धारण करता है तब उसे एकत्ववितर्क ध्यान कहते हैं।
एकत्ववितर्क शुक्लध्यान से घातियाकर्म नष्ट हो जाते हैं और केवलज्ञान प्रगट हो जाता है। केवलज्ञानी उपदेश देते रहते हैं। जब उनकी आयु अन्तर्मुहुर्त शेष रह जाती है और वेदनीय, नाम और गोत्र कर्म की स्थिति भी उतनी ही रहती है तब सभी वचनयोग और मनोयोग तथा वादरकाय योग को छोड़कर सूक्मयोग का अवलम्बन ले सूक्मक्रियाप्रतिपाति ध्यान आरम्भ करते हैं।
इसके बाद ध्याता को यथाख्यात चारित्र, ज्ञान और दर्शन की उपलब्धि हो जाती है और वह श्वासोच्छवास आदि समस्त काय, वचन और मन सम्बन्धी व्यापारों का निरोध कर 'व्युपरतक्रियानिवति' ध्यान आरम्भ करता है तथा ध्याता अपनी ध्यानाग्नि से समस्त मल-कलंक रूप कर्मबन्धों को जलाकर निर्मल और किट्ट रहित सुवर्ण की तरह परिपूर्ण स्वरूप लाभ करके निर्वाण को प्राप्त हो जाता है।
पृथक्त्ववितर्क और एकत्ववितर्क श्रुतकेवली के होते हैं तथा सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति और व्युपरतक्रियानिति ध्यान केवली के होते हैं। उसे 'शैलेशी