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१३. सयोगकेवली :
यहाँ कैवल्यावस्था प्राप्त जीव को अनन्तदर्शन, अनन्तज्ञान, अनन्तसुख और अनन्तवीर्य रूप गुण प्राप्त होते हैं। उसमें मात्र सत्यवचन, अनुभयवचन और औदारिक काय रूप त्रियोग शेष रह जाता है। इसलिए इसे सयोगकेवली कहा जाता है। सत्यवचनयोग और अनुभयवचनयोग से वह संसारी जीवों को मोक्षमार्ग का उपदेश देता है। यहाँ शुक्लध्यान का तृतीय भेद प्रगट हो जाता है। १४. अयोगकेवली :
इस गुणस्थान में सयोगकेवली शुक्लध्यान के चतुर्थ भेद को प्राप्तकर त्रियोगों का निरोध करता है और बाद में यथासमय अशरीरी होकर अधातिया कर्मों को भी नष्टकर सिद्धावस्था को प्राप्त कर लेता है।'
इस प्रकार गुणस्थान को आत्मा के क्रमिक विकास का अध्ययन कहा जा सकता है। किस प्रकार जीव अपनी मिथ्यात्व अवस्था को छोड़कर सम्यकत्व अवस्था प्राप्त करता है और बाद में समस्त कर्मों का उपशमनकर मोक्ष प्राप्त कर लेता है, इसका सोपानगत विश्लेषण हम गुणस्थान के माध्यम से जान पाते हैं।'
जैन श्रावक की आचार व्यवस्था का यह संक्षिप्त विवेचन उसके क्रमिक इतिहास को प्रस्तुत करता है । जैनेतर दर्शनों में निर्धारित व्यवस्था का भी यहाँ अध्ययन किया जाना अपेक्षित है। उनके बीच तुलनात्मक अध्ययन से यह स्पष्ट होता है कि जैन आचार व्यवस्था में साधनों की विशुद्धता पर अपेक्षाकृत अधिक ध्यान दिया गया है । बौद्ध धर्म की शब्दावली में गुणस्थान को भूमियों की संज्ञा दी जा सकती है।
२. मुनि आचार श्रावकाचार के परिपालन से साधक में मुनि-आचार के पालन की क्षमता उत्पन्न हो जाती है और वह आध्यात्मिक विकास की ओर कुछ और आगे बढ़ जाता है। संसार का हर पदार्थ उसे अब एक बन्धन-सा प्रतीत होने लगता है।
१. वही, १. २७-३०. २. नन्दिचूणि में पंद्रह प्रकार के सिखों का वर्णन किया गया है। ३. पंचसंग्रह (संस्कृत), १.४९-५०. ४. इस संदर्भ में विशेषावश्यक भाष्य नादि ग्रन्थ दृष्टव्य है।