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गुणस्थान तक भी पहुंच जाता है। पर क्षपक श्रेणी का जीव सातवें गुणस्थान से भी आगे बढ़ जाता है। ९. अनिवृत्तिकरण :
इसमें सभी जीवों के परिणाम समान (अनिवृत्ति-अविषम) रहते हैं। कर्मों की निर्जरा असंख्यातगुणी बढ़ जाती है और स्थितिबन्ध उत्तरोत्तर कम होता जाता है। उपशमश्रेणी का जीव मोहनीय कर्म की लोभ प्रकृति को छोड़कर शेष सभी प्रकृतियों का उपशम करता है और क्षपकरेणी का जीव उनका क्षय करके दशवें गुणस्थान में पहुंच जाता है।'
१०. सूक्मसापराय:
सांपराय का तात्पर्य है लोभ । इसमें साधक मोहनीय कर्म की शेष सूक्ष्म लोभ प्रकृतियों का भी उपशमकर ग्यारहवें गुणस्थान में जाता है और क्षपक श्रेणी वाला जीव उसका क्षयकर बारहवें गुणस्थान को पाता है। इस गुणस्थान का भी काल अन्तर्मुहूर्त है।' ११. उपशान्तमोह :
इस गुणस्थान का साधक सूक्ष्म लोभ का उपशम होते ही शुक्लध्यान के कारण एक अन्तर्मुहुर्त के लिए मोहनीय कर्म को उपशान्त कर वीतराग अवस्था प्राप्त कर लेता है। पर नियमसे वहाँ से गिरकर नीचे के गुणस्थानों में चला जाता है।
१२. क्षीणकषाय :
इस गुणस्थान में सूक्ष्मलोभ का क्षय हो जाता है और साथ ही ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय और अन्तराय रूप शेष घातिया कर्म भी नष्ट हो जाते है । फलतः जीव को कैवल्य अवस्था प्राप्त हो जाती है। इस गुणस्थान से जीव का पतन नहीं होता बल्कि अन्तर्मुहुर्त रहकर वह नियम से तेरहवें गुणस्थान में चला जाता है। इस गुणस्थान तक के जीव छद्मस्थ कहलाते है क्योंकि इस अवस्था तक उसके साथ कर्मों का सम्बन्ध बना रहता है।
१. पंचसंग्रह (प्राकृत), १.२०-२१; पवला, १.१. १. १७. २. वही, १.२२-२३; तत्त्वार्यवार्तिक, ९.१. २१, ३. भावसंग्रह, ६५५; धवला, १. पृ. १०९. ४. पंचसंग्रह (प्राकृत), १,२५, धवला, १. पृ. १९०.