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चारित्र के धारक मुनियों के मरण को पण्डित मरण, तीर्थकर के निर्वाणगमन को पंडितपण्डितमरण और देशवती श्रावक के मरण को बाल पण्डितमरण कहा जाता है। भक्तप्रत्याख्यान, इंगिनी और प्रायोपगमन ये तीन भेद पण्डितमरण के हैं जिनका उल्लेख हम ऊपर कर चुके हैं।
सल्लेखना अथवा समाधिकरण जैसा कोई व्रत जनेतर संस्कृति में प्रायः उपलब्ध नहीं है। जैनधर्म में तो निर्विकारी साधु अथवा श्रावक के मरण को मृत्यु महोत्सव का रूप दिया गया है जबकि अन्यत्र कोई प्रसंग भी नहीं आता। वस्तुतः यह व्रत अन्तिम समय में आध्यात्मिक और पारलौकिक क्षेत्र में अपनी आत्मा को विशुद्धतम बनाने के लिए एक बहुत सुन्दर साधन है। जैनधर्म की यह एक अनुपम देन है। वैदिक संस्कृति में प्रायोपवेशन, प्रायोपगमन जैसे कतिपय शब्द सल्लेखना के समानार्थक अवश्य मिलते हैं पर उनमें वह विशुद्धता तथा सूक्ष्मता नहीं दिखाई देती। अधिक संभव यह है कि उसपर जैन संस्कृति का प्रभाव पड़ा होगा। फिर भी इसे हम 'भक्तप्रत्याख्यानमरण' कह सकते हैं। इस अवस्था में भी साधक के मन में किसी प्रकार की इहलोक, परलोक, जीवित, मरण और कामभोग की आकांक्षा नहीं होनी चाहिए। उसे पूर्णनिरासक्त और निष्कांक्ष होना आवश्यक है। समभाव की प्राप्ति तभी हो सकेगी जब वह निर्मोही हो जायेगा । जैन संस्कृति की सल्लेखना में मुमुक्षु की मानसिक अवस्था का सुन्दर संयोजन होता है। बौद्ध संस्कृति में भी मुझे सल्लेखना से मिलता-जुलता कोई व्रत देखने नहीं मिला।
इस प्रकार श्रावक आवस्था मुनिव्रत की पूर्णावस्था है। अतः यह स्वाभाविक है कि साधक अपनी पूर्णावस्था में उत्तरावस्था में निर्धारित आचार व्यवस्था को किसी सीमा तक पालन करने का प्रयत्न करे। इसे हम उसकी अभ्यास अवस्था कह सकते है। योगसाधना, परीषहों और उपसर्गों को सहन करना आदि कुछ ऐसे ही तत्व हैं जिनका अनुकरण श्रावक भी करता है। ऐसे तत्वों का विवेचन संयुक्त विवेचन समझना चाहिए। कुछ तत्वों का वर्णन हमने श्रावकाचार प्रकरण में कर दिया और कुछ को मुनि आचार प्रकरण में प्रस्तुत करने का प्रयल किया है। दोनों अवस्थाओं में व्रत लगभग वही है, मात्र अन्तर है उनके परिपालन में हीनाधिकता अथवा मात्रा का ।
गुणस्थान जीव मिथ्यात्व और अज्ञानता के कारण अपने विशुद्ध स्वरूप को प्राप्त नहीं कर पाता। जिस क्रम से वह अपनी विशुद्ध अवस्थारूप परमपद