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को प्राप्त करने का प्रयल करता है उसे ही गुणस्थान कहा जाता है।' अर्थात् गुणस्थान आध्यात्मिक क्षेत्र में चरमावस्था प्राप्त करने के लिए जीव के विकासात्मक सोपान हैं। ये चौदह होते हैं -१. मिथ्यादृष्टि, २. सासादन, सम्यग्दृष्टि, ३. सम्यग्मिय्यादृष्टि, ४. अविरत सम्यग्दृष्टि, ५. देशसंयत, ६. प्रमत्तसंयत, ७. अप्रमत्तसंयत, ८. अपूर्वकरण संयत, ९. अनिवृत्तिकरणसंयत, १०. सूक्ष्मसांपरायसंयत, ११. उपशान्तकषाय संयत, १२. वीतरागछद्मस्थसंयत, १३. सयोगकेवली गुणस्थान, और १४. अयोगकेवली गुणस्थान । १. मिथ्यावृष्टि :
जीव जबतक आत्मस्वरूप की पहचान नहीं कर पाता, तबतक वह मिथ्यादृष्टि बना रहता है।' एकेन्द्रिय से लेकर असंही पंचेद्रिय तक के जीव मिय्यादृष्टि ही होते हैं । संज्ञी अवस्था प्राप्तकर यदि वे पुरुषार्थ करें तो उस मिथ्यात्व से दूर हो सकते हैं। वह मिथ्यात्व पाँच प्रकार का होता है'-१. १. एकान्त मिथ्यात्व (पदार्थ नित्य अथवा अनित्य ही है, यह मान्यता), २. अज्ञानमिथ्यात्व (स्वर्ग, नरक आदि को न मानना), ३. विपरीत मिथ्यात्व (मिथ्यादर्शनादि विपरीत मार्ग से भी मुक्ति-प्राप्ति को स्वीकार करना), ४. संशय मिथ्यात्व (किसी तत्त्व का निर्णय नहीं कर पाना), और ५. विनय मिथ्यात्व (पद के प्रतिकूल भक्ति करना)। मिथ्यात्त्व के दूर होते ही जीव प्रथम गुणस्थान से चतुर्थ गणस्थान में पहुंच जाता है। और फिर वहाँ से पतित होकर प्रथम मुणस्थान में आता है। २. सासावन सम्यावृष्टि :
मिथ्यादृष्टि जब प्रथमबार सम्यग्दर्शन को प्राप्त करता है तो उसे प्रथमोपशम सम्यकत्व कहते हैं। चतुर्थ गुणस्थान में पहुंचने पर नियम से वह अनन्तानुबन्धी कषायादि की तीव्रता के कारण सम्यग्दर्शन से पतित होता है फिर भी वह सम्यग्दर्शन का आस्वादन लिये रहता है। इसलिए इस अवस्या का नाम सासादन सम्यग्दृष्टि गुणस्थान है। यहाँ जीव एक समय से लेकर छह आवली तक रहता है। फिर वह प्रथम गुणस्थान में पहुंच जाता है।
१. पंचसंग्रह, १.३; गोमट्टसार जीवकाण्ड, ८.२९. २. मूलाचार, ११९५-९६. ३. रयणसार, १०६. ४. धवला, १.१.१.९. ५. पंचसंग्रह १.९.