________________
२८५
से साधक के परिणाम अत्यन्त सरलता और विरागता की ओर बढ़ जाते हैं। वह साधक निश्छल और क्षमाशील हो जाता है। यावज्जीवन आहारादि का त्याग कर संसार-सागर से पार होने का उपक्रम करता है। कुन्दकुन्द, वसुनन्दि आदि आचार्यों ने इसे शिक्षाव्रतों में सम्मिलित किया है जब कि उमास्वाति, समन्तभद्र आदि आचार्यों ने उसे मरणान्तिक कर्तव्य के रूप में माना है।
भक्तप्रत्याख्यानमरण के दो भेद है-सविचार और अविचार । नाना प्रकार से चारित्र का पालन करना और चारित्र में ही विहार करना विचार है। उस विचार के साथ जो वर्तता है वह सविचार है और जो इस प्रकार का वर्तन नहीं करता वह अविचार है । जो गृहस्थ या मुनि उत्साह व बलयुक्त है और जिसका मरणकाल सहसा उपस्थित नहीं हुआ है अर्थात् जिसका मरण कुछ अधिक समय बाद प्राप्त होगा, ऐसे साधु के मरण को सविचार भक्तप्रत्याख्यानमरण कहते हैं। जिसमें कोई सामर्थ्य नहीं और जिसका मरणकाल सहसा उपस्थित हुआ है ऐसे साधु के मरण को अविचारभक्तप्रत्याख्यान कहते हैं।'
२. इंगिनीमरण- इसमें आहारादि त्यागने के बाद साधक नियत देश में ही शरीर की परिचर्या स्वयं ही करता है, दूसरों से नहीं कराता।
३. प्रायोपगमन मरण- इसमें साधक आहारादि त्यागने के बाद शरीर की परिचर्या न स्वयं करता है और न दूसरों से कराता है। वह तो मात्र सतत आत्मध्यान में लीन रहता है। इसे 'प्रायोग्यगमन' भी कहते हैं । प्रायोग्य का अर्थ है संस्थान या संहनन । इनकी प्राप्ति होना प्रायोग्य गमन है। विशिष्ट संस्थान व विशिष्ट संहनन वाले ही प्रायोग्य अंगीकार करते हैं। कहीं-कहीं इसके लिए "पादोपगमन" शब्द का भी प्रयोग हुआ है। इसका अर्थ है-अपने पांव के द्वारा संघ से निकलकर और योग्य प्रदेश में जाकर जो मरण किया जाता है वह पादोपगमन मरण हैं।
आचार्य शिवार्य ने समाधिमरण का विरतार से वर्णन करते हुए मरण के पांच भेद किये है-बालमरण, बाल-बालमरण, पण्डितमरण, पण्डित-पण्डितमरण, और बाल-पण्डित मरण । अविरत सम्यग्दृष्टि के मरण को बालमरण, मिण्या-दृष्टि के मरण को बाल-बालमरण, सम्यक
१. भगवती बाराधना, वि., गाथा, ६५. २. वही, गा. २९; उवासगवसांग सूत्र, अध्याय १; उत्तराध्ययन टीका, २...