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शाश्वत अभ्युदय और निःश्रेयस् की प्राप्ति करे। साधक अपना शरीर बिलकुल अशक्त देखकर आभ्यन्तर और बाह्य, दोनों सल्लेखनायें करता है। आम्यन्तर सल्लेखना कषायों की होती है और बाह्य सल्लेखना शरीर की होती है। परिणामों की विशुद्धि जितनी अधिक होगी, सल्लेखना की उपयोगिता उतनी ही अधिक होगी। इसमें कषायों की क्षीणता नितान्त आवश्यक है। मरण के सन्निकट आ जाने पर, तथा उपसर्ग या चारित्रिक विनाश की स्थिति आ जाने पर सल्लेखना धारण की जाती है। मरणकाल में जो जीव जिस लेश्या से परिणत होता है उत्तरकाल में उसी लेश्या का धारक होता है। चिरकाल से आराधित धर्म भी यदि अन्तकाल में छोड़ दिया जाये तो वह निष्फल हो जाता है। और यदि मरणकाल में उस धर्म की आराधना की जाय तो वह चिरकाल के उपाजित पापों का भी नाश कर देता है। साधक की साधना को सफल बनाने के लिए अन्य स्वपरविवेकी साधु यथाशक्य प्रयत्न करते है। वे तरह तरह से साधनारत व्यक्ति के लिए उपदेश देते रहते हैं और धर्म साधना में व्यस्त व्यक्ति के भावों को दृढ़ बनाये रखते हैं। मुनि भी अन्तिम समय में सल्लेखना धारण करते है।
मरण के प्रकार :
जैन साहित्य में शरीर त्याग के तीन प्रकारो का उल्लेख मिलता हैच्युत, च्यावित और त्यक्त ।' आयु के समाप्त होने पर स्वभावतः मरण हो जाना च्युत है। शस्त्र अथवा विषादिक द्वारा शरीर छोड़ना च्यावित है जो उचित नहीं कहा जा सकता और समाधिमरण द्वारा मरण होना त्यक्त कहलाता है। त्यक्त के तीन प्रकार है-भक्त प्रत्याख्यानमरण, इंगिनीमरण और प्रायोपगमनमरण ।
१. भक्तप्रत्याख्यानमरण-इसमें आहारादि त्यागने के बाद साधक शरीर की परिचर्या स्वयं ही करता है, दूसरों से नहीं कराता। वह प्रतिज्ञा करता है कि मै सर्व प्रथम हिंसादि पांचों पापों का त्याग करता हूँ। मुझे सब जीवों में समता भाव है, किसी के साथ भी मेरा वैर नहीं। इसलिए मैं सर्व माकांक्षाओं को छोड़कर समाधि (शुद्ध) परिणाम को प्राप्त होता हूँ। मैं सब अन्न-पान आदि आहार की अवधि का, आहार संज्ञा का, सम्पूर्ण आशाओं का कवानों का और सर्व पदार्थों में ममत्व भाव का त्याग करता हूं।' इस प्रतिश
१. भगवती बाराधना, १९२२, सागार धर्मामृत, ८.१६; उपासकाध्ययन, ८९७-८. २. गोम्मटसार कर्मकाण्ड, ५६-६१. ३. मूलाचार १०९-१११:भगवती शतक, १३, ३.८ पा. ३०; ठाणांगटीका, २.४.१०.