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के उपर कोई तीव्र उपसर्ग आ गया हो अथवा दुर्भिक्ष, वृद्धावस्था और रोग के कारण आचार-प्रक्रिया में बाधा आ रही हो । ऐसी परिस्थिति में यही श्रेयस्कर है कि साधक अपने धर्म की रक्षार्थ विधिपूर्वक शरीर को छोड़ दे।' यहाँ आन्तरिक विकारों का विसर्जन करना साधक का प्रमुख उद्देश्य रहता है। आत्महत्या और सल्लेखना :
इस प्रकार के शरीर त्याग में साधक पर किसी भी प्रकार से आत्महत्या का दोष नहीं लगाया जा सकता। क्योंकि आत्महत्या करनेवाला किसी भौतिक पदार्थ की अतृप्त वासना से ग्रस्त रहता है जबकि सल्लेखनाव्रतधारी श्रावक अथवा साधु के मन में इस प्रकार का कोई वासनात्मक भाव नहीं रहता बल्कि वह शरीरादि की असमर्थता के कारण दैनिक कर्तव्यों में संभावित दोषों को दूर करने का प्रयत्न करता है। वह ऐसे समय निःकषाय होकर परिवार और परिचित व्यक्तियों से क्षमायाचना करता है और मृत्यु-पर्यन्त महावतों को धारण करने का संकल्प कर लेता है। तदर्थ सर्वप्रथम वह आत्मचिंतन करता है और उसके बाद क्रमशः खाद्य, और पेय पदार्थ छोड़कर उपवासपूर्वक देहत्याग करता है। वहाँ उसके मन में शरीर के प्रति कोई राग नहीं होता। अत: आत्महत्या का उसे कोई दोष लगने का प्रश्न ही नहीं उठता।'
वस्तुतः आत्महत्या और सल्लेखना में अन्तर समझ लेना अत्यावश्यक है। आत्महत्या की पृष्ठभूमि में कोई अतृप्त वासना काम करती है। आत्महत्या करने वाला अथवा किसी भौतिक सामग्री को प्राप्त करने के लिए अनशन करनेवाला व्यक्ति विकार भावों से जकड़ा रहता है। उसका मन क्रोधादि भावों से उत्तप्त रहता है। जबकि सल्लेखना करने वाले के मन में किसी प्रकार की वासना और उत्तेजना नहीं रहती। उसका मन इहलौकिक साधनों की प्राप्ति से हटकर पारलौकिक सुखों की प्राप्ति की ओर लगा रहता है। भावों की निर्मलता उसका साधन है। तज्जीवतच्छरीरवाद से हटकर शरीर और आत्मा की पृथकता पर विचार करते हुए शारीरिक परतन्त्रता से मुक्त होना उसका साध्य है। विवेक उसकी आधारशिला है। अतः आत्महत्या और सल्लेखना को पर्यायार्थक नहीं कहा जा सकता।
समाधिमरण और सल्लेखना पर्थिक शब्द हैं। जैसा पहले हम कह चुके हैं, सल्लेखना का उद्देश्य यही है कि साधक संसार-परंपरा को दूर कर १. उपसर्गे दुर्मिने परसि रुजायां च निःप्रतीकारे ।
धर्माय तनुविमोचन माहुः सल्लेबनामार्याः ॥ रत्नकरडमावकाचार ५.१. २. सर्विसिवि, ७.२२, राषवार्तिक, ७.२२, पारिपसार,२२.