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कायोत्सर्ग पूर्वक जो सामायिक करता है वह सामायिक प्रतिमाधारी श्रावक कहलाता है। द्वितीय प्रतिमाघारी भी सामायिक करता है पर नियमतः नही । सामायिक करते समय गृहस्थ भी संयमी मुनि के समान होता है ।' ४. प्रोषधप्रतिमा :
प्रोषधोपवास का तात्पर्य है पर्व के दिनों चारों प्रकार का आहारत्याग करना और प्रोषध का अर्थ है दिन में एक बार भोजन करना। इस प्रकार प्रोषधोपवास में एकाशन के साथ उपवास किया जाता है। प्रोषधप्रतिमा का पालक प्रत्येक मास की अष्टमी और चतुर्दशी को प्रोषधोपवास करता है। साथ ही विषय-वासनाओं से भी अपने आपको मुक्त रखता है। व्रती श्रावक का जो प्रोषधोपवास शील रूप से रहता था वही प्रोषधोपवास इस चतुर्य प्रतिमाधारी के व्रत रूप से रहता है। इस अवस्था में प्रोषधोपवास का पालन नियमतः और निरतिचार पूर्वक होता है।'
५. सचित्त त्याग प्रतिमा :
इस अवस्था में श्रावक ऐसे फलादिक का त्याग करता है जो सचित्त (एकेन्द्रिय जीव वाला) होता है। जैसे-कन्द-मल, पत्र, पुष्प, फल, बीज, अप्रासुक जल आदि। इससे व्रती हिंसा से बच जाता है और उसके त्याग का पथ प्रशस्त हो जाता है। व्रती श्रावक सचित्त भोजन को पहले भोगोपभोग परिमाण व्रत के अतिचार के रूप में छोड़ता था वही इस अवस्था में व्रत रूप में छोड़ता है। उपासकदशांग मे इस प्रतिमा को सातवां कम दिया गया है। इसके पूर्व कायोत्सर्ग और ब्रह्मचर्य प्रतिमाओं को ग्रहण किया गया है।
६. रात्रिभुक्तित्याग प्रतिमा :
इस प्रतिमा के साधारणतः दो नाम मिलते है-रात्रिभोजनत्याग और रात्रिभुक्ति व्रत अथवा दिवामैथुनत्याग । मुक्ति का अर्थ है-भोग । रात्रिभुक्तिव्रत में रात्रि में ही भोग करना विहित माना जाता है, दिन में नहीं। इसलिए इसे दिवामैथुनत्यागवत भी कहा जाता है। आचार्य कुन्दकुन्द, स्वामी कार्तिकेय, समन्तभद्र आदि आचार्यों ने इसका नाम 'रात्रिभुक्तित्याग' रखन का
१. चारित्रसार, १९-१; मूलाचार, ५३१. २. रत्नकरणबावकाचार, १०९. ३. रलकरणबावकाचार, १४०. ४. लाटी संहिता, ७.१२-१३. ५. रत्नकरण्डभावकाचार, १४१.