________________
२७९
अतः उनके पर प्रश्न यह
आग्रह किया है । यहाँ भुक्ति का अर्थ भोजन लिया गया है । अनुसार रात्रिभोजन करने का त्याग करना हठी प्रतिमा है ।" उठता है कि क्या इसके पूर्व तक की अवस्था में रात्रि भोजन विहित था ? जबकि रात्रिभोजन में त्रस-स्थावर जीवों की विराधना होने की सम्भावना अधिकाधिक रहती है तब अहिंसक जैन चिन्तक पांचवीं प्रतिमा तक रात्रिभोजन को विहित कैसे मान सकता है ? अतः वसुनन्दि के बाद की परम्परा में आशाधर आदि विद्वानों ने इन दोनों मतों को समन्वित करने का प्रयत्न किया और दिन में स्त्रीसेवन का त्याग तथा रात्रि में भोजन का त्याग करना आवश्यक बताया । " वसुनन्दि ने इसे दिवामैथुनत्याग प्रतिमा कहा है।' उपासकदशांग की परम्परा में इस प्रतिमा का कोई नाम नहीं ।
७. ब्रह्मचर्य प्रतिमा :
जो श्रावक मैथुन का सर्वथा त्याग कर देता है वह ब्रह्मचर्यं प्रतिमाधारी कहलाता है । इसमें त्यागी परम सात्विक हो जाता है और सरल प्रकृति से व्रतों आरूढ रहता है | व्यापार करते हुए भी वह न्यायाचार पर बल देता है ।
ब्रह्म का अर्थ निर्मल ज्ञान रूप आत्मा है । उस आत्मा में लीन होने का नाम भी ब्रह्मचर्य है ।" अतः इस प्रतिमा का धारक श्रावक स्त्री-सेवन से दूर रहता है और आत्मध्यान में लीन रहता है । मन, वचन, काय और कृत, कारित, अनुमोदना के भेद से ब्रह्मचर्य नव प्रकार का होता है । इसमें स्त्रीकथा आदि से भी विनिवृत्ति अवश्यक है ।
८.
आरम्भत्याग प्रतिमा :
यह प्रतिमा दिग्व्रत और देशव्रत पर आधारित है । इसमें व्रती श्रावक आरम्भ-परिग्रह के कारणभूत कृषि, वाणिज्य आदि व्यापार त्याग देता है और संचित धन से अपना काम निकाल लेता है ।" इस प्रतिमा को स्वीकार करने से पूर्व वह सचित्त पदार्थों का स्पर्शं करता था और फलतः अतिचार का दोष लगता था । परन्तु आरम्भत्याग प्रतिमा को ग्रहण करने के बाद वह इन अतिचारों से दूर हो जाता है ।"
१. रत्नकरण्ड श्रावकाचार, १४२; आचार सार, ५.७०-७१.
२. चारित्रसार, पू. ३८.
३. वसुनन्दि श्रावकाचार, २९६.
४. अनगार धर्मामृत, ४.६०.
५. रत्नकरण्ड श्रावकाचार, १४४. ६. लाटी संहिता, ७.३३.