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उपर्युक्त मतभेद देखने से यह प्रतीत होता है कि संस्था तो वही रही पर आचार्य अपने समय और परिस्थिति के अनुसार उनमें परिवर्तन करते रहे । इन परिवर्तनों में प्रायः सभी आचायों ने आत्मचिंतन, व्रतोपवास, भोगोपभोगसामग्री को सीमित करना, दानादि देना, अतिथियों का आदर सत्कार करना आदि जैसे सद्गुणों और व्यावहारिक दृष्टियों को नियोजित किया । इसके बाद आहारदान, ज्ञानदान, औषधिदान और अभयदान पर अधिक जोर दिया गया ।
इन द्वादश व्रतों को मूलगुण और उत्तरगुण अथवा शीलव्रत के रूप से भी विभाजित किया गया है । शील का तात्पर्य है जो व्रतों की रक्षा करे । उमास्वामी' आदि आचार्यों ने गुणव्रतों और शिक्षाव्रतों को 'शीलव्रत' की संज्ञा दी है पर सोमदेव आदि आचार्यों ने पंचोदुम्बरफलत्याग को 'मूलगुण' मानकर उनकी संख्या आठ कर दी तथा पांच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत इन बारह व्रतों को 'उत्तरगुण' मान लिया । समन्तभद्र ने श्वेताम्बर परम्परानुसार पांच मूलगुणों और सात उत्तरगुणों को कहकर कुन्दकुन्द के अनुसार गुणव्रतों को स्वीकार किया है । जिनसेन ने उत्तरगुणों की संख्या बारह बताकर कुन्दकुन्द का अनुकरण किया है । सोमदेव भी लगभग उसी परम्परा पर चल रहे हैं । उत्तरकाल में कुछ आचार्यों ने कुन्दकुन्द का अनुकरण किया और कुछ ने उमास्वामी का । शीलव्रतों का महत्व इस दृष्टि से विशेष आंका जा सकता है कि उनका निरतिचारता पूर्वक पालन करने से ही तीर्थंकर प्रकृति का बन्ध माना गया है ।
२. सामायिक प्रतिमा :
सामायिक का तात्पर्य है आत्मचिंतन | जो श्रावक सुबह, दोपहर और सायंकाल निर्विकार होकर खड्गासन अथवा पद्मासन से बैठकर मन-वचनकाय शुद्धकर देव शास्त्र - गुरु की वन्दना और प्रतिक्रमण करे वह सामायिक प्रतिमाधारी श्रावक कहलाता है ।' प्रतिक्रमण का तात्पर्य है - प्रमादवश हुए अपराधों की आलोचना करना । भविष्य में उन अपराधों से अपने आपको दूर रखने के लिए तथा आत्मा को निर्बिकार और विशुद्ध बताने के लिए प्रतिक्रमण करना अत्यावश्यक है । इससे समता और माध्यस्थ भाव का जागरण होता है । और पर द्रव्यों से राग-द्वेष भाव समाप्त होने लगता है। समय का अर्थ है आत्मा । एकान्त रूप से आत्मा में तल्लीन हो जाना सामायिक है । नियमतः
१. चारित्रसार प्राभूत, २४-२५.
२. उपासकाध्ययन, २७०, ३१४.
३. रत्नकरण्ड श्रावकाचार, १३९. ४. ज्ञानार्णव, २७.१३-१४.