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'दिव्रत' और 'देशव्रत' कहते हैं ।' निरर्थक आरम्भ अथवा कार्य करने का त्याग करना 'अनर्थदण्डव्रत' है, जैसे बिना किसी उद्देश्य के भूमि खोदना, वृक्ष काटना, फलफूल तोड़ना आदि । ये तीनों व्रत गुणोंमें वृद्धि करते हैं" तथा अणुव्रतों के उपकारक हैं। इसलिए इन्हें गुणव्रत कहा जाता है । गुणव्रत के भेदों में मतभेद है। आचार्य कुन्दकुन्द ने दिक्परिमाण, अनर्थदण्डव्रत और भोगोपभोगपरिमाण को गुणव्रत कहा है । कार्तिकेय ने इन्हें स्वीकार कर अनर्थदण्डव्रत के पांच भेद किये है । उमास्वामी ने भोगोपभोग के स्थानपर देशव्रत रखकर व्रतों के अतिचारों का सर्वप्रथम वर्णन किया है । भगवती आराधना, वसुनन्दि श्राबकाचार, महापुराण आदि ग्रन्थों ने उमास्वामी का ही अनुकरण किया है ।
शिक्षाव्रत :
गुणव्रतों के बाद चार शिक्षाव्रत माने गये है जिनका पालन करने से साधक - अवस्था की भूमिका में दृढ़ता आती है । इनकी संख्या में मतभेद नहीं पर नामों में मतभेद अवश्य है । आचार्य कुन्दकुन्द ने सामायिक, प्रोषध, अतिथिपूजा और सल्लेखना को शिक्षाव्रत कहा है । भगवती आराधना में सल्लेखना के स्थानपर भोगोपभोगपरिमाणव्रत रखा गया और सर्वार्थसिद्धि मे इसकी गणना शिक्षाव्रत के रूप में न करके एक स्वतन्त्र व्रत के रूप में की गयी जिसे साधक सहसा मरण आनेपर निर्मोही होकर धारण करता है ।' कार्तिकेय ने 'सल्लेखना' के स्थानपर 'देशावकाशिक' रखा । उमास्वामी ने सामायिक, प्रोषधोपवास, उपभोगपरिभोग-परिमाण और अतिविसंविभाग नाम दिये । समन्तभद्र ने कुन्दकुन्द और कार्तिकेय का अनुसरण करते हुये भी कुछ सुधारवादी दृष्टिकोण अपनाया और देशावकाशिक, सामायिक, वैयावृत्य, तथा अतिथिसंविभागव्रत को शिक्षाव्रत कहा । जिनसेन, अमितगति और आशाधर ने उमास्वामी का अनुकरण किया पर सोमदेव ने उमास्वामी द्वारा बताये गये चतुर्थ व्रत 'अतिथिसंविभाग' के स्थानपर 'दान' रख दिया । वसुनन्दि में कुन्दकुन्द और उमास्वामी, दोनों का अनुकरण दिखता है । उन्होंने भोगविरति, उपभोगविरति, अतिथिसंविभाग और सल्लेखना को शिक्षाव्रत माना है । "
१. उपासक दशरंग, अ. १.
२. रत्नकरण्डग्रावकाचार -
३. सागारधर्मामृत, ५.१.
४. चारित्रप्राभूत, माया, २४-२५.
५. सर्वार्थसिद्धि ७.११.
६. Jainism in Buddhist Literature, p. 103-4.
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