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साधना के सन्दर्भ में खड़े हुए, उनका यथोचित और यथाविधि उत्तर इन ग्रन्थों में देने का प्रयत्न किया गया है ।
रात्रिभोजन :
अहिंसा के प्रसंग में रात्रिभोजन त्याग पर भी विचार किया गया है । मुनि और श्रावक दोनों के लिए रात्रिभोजन वर्जित माना है। मूलाचार में 'तेसिं चेव वदाणां रक्खट्ठं रादिभोयणविरत्ती' (५-९८) लिखकर यह स्पष्ट किया है कि पाँच व्रतों की रक्षा के निमित्त 'रात्रिभोजनविरमण' का पालन किया जाना चाहिए। इसी में अहिंसा व्रत की पाँच भावनाओं में 'आलोकित भोजन' को भी सन्निविष्ट किया गया है । भगवती आराधना ( ६-११८५-८६, ६.१२०७ ) में भी शिवार्य ने यही कहा है । सूत्रकृतांग के वैतालीय अध्ययन में और वीरस्तुति अध्ययन में रात्रिभोजन निषेध का स्पष्ट उल्लेख है । वीरस्तुति अध्ययन में तो इसे महावीर का विशेष योगदान कहा गया है । दशवेकालिक सूत्र में इसे छठवां व्रत माना गया है - छट्ठे भंते वए उबट्ठिओमि सब्बाओ राईभोयणाओ वेरमणं, ' कुन्दकुन्द ने ग्यारह प्रतिमाओं में 'रायभत्त' त्याग को छठी प्रतिमा कहा है और उनके टीकाकार श्रुतसागरसूरि ने 'रात्रिभुक्तिविरत' कहा है ।
दशवैकालिक आदि की इस परम्परा का विरोध भी हुआ । मुनियों के लिए तो उसका अन्तर्भाव 'आलोकितपान भोजन' में हो ही जाता है । बाद में इसे अणुव्रतों में भी सम्मिलित कर दिया गया । यह परम्परा तत्त्वार्थसूत्र के सभी टीकाकारों अर्थात् पूज्यपाद', अकलंक", विद्यानन्द', भास्करानन्दि' एवं श्रुतसागरसूरि ने की । इनमें रात्रिभोजन त्याग को छठा अणुव्रत नहीं माना बल्कि उसका अन्तर्भाव 'आलोकित भोजनपान' में कर दिया ।
समन्तभद्र ने छठी प्रतिमा का नाम " रात्रिभुक्तिविरत" रखा ।" कार्तिकेय ने भी इसे स्वीकार किया ।" यहाँ छठी प्रतिमा के पूर्व रात्रिभोजनबिरमण
१. सूत्रकृतांग, ४.१६-१७; ४.२८.
२. चारित्रप्रामृत, २१.
३. सर्वार्थसिद्धि, ७.१; सं. टीका पू. ३४३-४. ४. तत्वार्थवार्तिक, ७.१; सं टीका. पु. २-५३४. ५. तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक, ७.१, सं. टीका. ५. ४५८. ६. सुखबोधिका टीका ७-१. ( स. टी.) ७. तत्त्वार्थवृत्ति, ७.१, सं. टींका.
८. उत्नकरण्ड श्रावकाचार, १४२. ९. कार्तिकेयानुप्रेक्षा, ३८२.