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'संकल्प' को छोड़ दिया ।' सोमदेव' और अमृतचन्द्र सूरि' ने तत्त्वार्थसूत्र के आधार पर हिंसा का लक्षण कर अहिंसा का लक्षण स्पष्ट किया है। हिंसा का लक्षण करते हुए उमास्वामी ने कहा है- कषाय के वशीभूत होकर द्रव्यरूप या भावरूप प्राणों का घात करना हिंसा है। मद्य, मांस, मधु तथा पंचोदुम्बर फलों का भक्षण भी हिंसा के अन्तर्गत आता है । अत: अहिंसाणुव्रती के लिए उनका त्याग करना भी आवश्यक बताया गया है । इस व्रत का पालन करनेवाला, मन, वचन, काय और कृत-कारित अनुमोदना से त्रस जीवों की हिंसा नहीं करता । बन्ध, बघ, छेद, अतिभारारोपण और अन्नपान का निरोध इन पाँच अतिचारों को भी वह नहीं करता ।'
वैदिक संस्कृति में निर्दिष्ट यज्ञों का प्रचलन अधिक हुआ और हिंसा जोर पकड़ने लगी । फलतः श्रावक के लिए यह भी नियोजित किया जाना आवश्यक हो गया कि देवता के लिए, मन्त्र की सिद्धि के लिए, औषधि और भोजन के लिए वह कभी किसी जीव को नहीं मारेगा। इसी को श्रावक की 'चर्या' कहा गया है । इस विकास का समय लगभग ७-८ वीं शती कहा जा सकता है ।
चर्या तु देवतार्थं वा मन्त्रसिद्ध्यर्थमेव वा । औषधाहारक्लृप्त्यै वा न हिंस्यामिति चेष्टितम् ।।'
सोमदेव ने तो बाद में उसे अहिंसा के स्वरूप में ही सम्मिलित कर दिया कि देवता के लिए, अतिथि के लिए, पितरों के लिए, मन्त्रसिद्धि के लिए, औषधि के लिए, और भय से सब प्राणियों की हिंसा न करने को 'अहिंसाव्रत' कहा है ।
देवतातिथिपित्रर्थं मन्त्रौषधभयाय वा ।
न हिंस्यात् प्राणिनः सर्वानहिंसा नाम तद्व्रतम् ।।
पुरुषार्थं सिद्धचुयाय और सागारधर्मामृत में अहिंसा की और भी गहराई से व्याख्या की गई है । इस समय तक जो जैसे भी प्रश्न चिन्ह अहिंसा की
१. तत्त्वार्थ राजवार्तिक, ७.२० .
२. यास्मादप्रयोगेन प्राणिषु प्राणहापनम् ।
सा हिंसा रक्षणं तेषामहिसा तु सतां मता ।
- उपासकाध्ययन, ३१८.
३. पुरुषार्थसिद्धुपाय, ४३.
४. प्रमायोगात्प्राणव्यपरोपणं हिंसा, तत्त्वार्थसूत्र, ७.१३.
५. तत्वार्थसून, ७.२५.
६ आदिपुराण, ३९.१४७०
७. उपासकाध्ययन, ३२०.