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की बात का कोई उल्लेख नहीं मिलता। देवसेन', चामुण्डराय और आशाधर' ने भी इसी मत का अनुकरण किया है। चारित्रसार (पृ. १९), उपासकाचार (श्लोक ८५३), वसुनन्दि श्रावकाचार (गा. २९६), अमितगतिश्रावकाचार (७.७२), भावसंग्रह (५३८), सागारधर्मामृत (७.१२), में इसका दूसरा ही अर्थ किया गया है। वहां कहा गया है कि जो केवल रात्रि में ही स्त्री से भोग करता है और दिन में ब्रह्मचर्य पालता है उसे 'रात्रिभुक्तवत' और 'दिवामथुन विरत' कहा जाता है। लाटी संहिता (पृ. १९) में इन दोनों मतों को समन्वित कर दिया गया है।
२. सत्याणुव्रत :
शेष अणुव्रत अहिंसाणुव्रत के रक्षक के रूप में निर्धारित किये गये हैं। सत्याणुवती वह है जो राग द्वेषादि कारणों से झूठ न स्वयं बोलता हो और न दूसरों से बुलवाता हो। इसी प्रकार दूसरे को विपत्ति में डालनेवाला सत्य भी न बोलता हो और न बुलवाता हो। उमास्वामीने असत्य को असत् कहा है। जिसका अर्थ पूज्या पाद ने अप्रशस्त किया है। इसी अधार पर सत्य किंवा असत्य के भेद-प्रभेद किये गये हैं। भगवती आराधना में सत्य के दस भेद मिलते हैं-जनपद, सम्मति, स्थापना, नाम, रूप, प्रतीति, सम्भावना, व्यवहार, भाव
और उपमा सत्य ।' अकलंक ने सम्मति, सम्भावना और उपमा सत्य के स्थान पर संयोजना, देश और समयसत्य को रखकर सत्य के दस भेद स्वीकार किये हैं। पदार्थों के विद्यमान न होने पर भी सचेतन और अचेतन द्रव्य की संज्ञा करने को 'नामसत्य' कहते है। जैसे—इन्द्र इत्यादि। पदार्थ का सनिधान न होने पर भी रूपमात्र की अपेक्षा जो कहा जाता है वह 'रूपसत्य' है । जैसे-चित्रपुरुषादि में चैतन्य उपयोगादि रूप पदार्थ के न होने पर भी 'पुरुष' इत्यादि कहना। पदार्थ के न होने पर भी कार्य के लिए जिसकी स्थापना की जाती है वह स्थापना सत्य' है। जैसे-जुआ आदि खेलों में हाथी, वजीर आदि की स्थापना करना। सादि व अनादि भावों
१. वर्शनसार. २. चारित्रसार, पृ.७. ३ बनगार धर्मामृत,४.५०. ४. रात्रिभोजन विरमण-डॉ. राजाराम जैन, गुरु गोपालदास वरैया स्मृति अन्य,
पृ. ३२३-६. ५. रत्नकरण्डबावकाचार, ५५, बसुनन्दि श्रावकाचार, २१०. ६. तत्वार्यसूत्र, ७.१४. ७. सर्विसिदि, ७.१४. ८. भगवती बाराषना, ११९३.