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अनुगमन किया। कार्तिकेय ने पृथक रूप से मलगुणों का उल्लेख तो नहीं किया पर दर्शन-प्रतिमा में उन्हें सम्मिलित-सा अवश्य कर दिया। जिनसेन (८-९वीं शती) ने भी रविषेण का ही अनुकरण किया। मात्र अन्तर यह है कि यहां रात्रिभोजनत्याग के स्थान पर परस्त्रीत्याग का निर्धारण किया गया है।' महा-. पुराण का उल्लेख कर चामुण्डराय ने स्पष्टतः समन्तभद्र का साथ दिया है परन्तु महापुराण में यह प्रतिपादक श्लोक उपलब्ध नहीं। वसुनन्दि ने उनका स्पष्टतः यह उल्लेख अवश्य नहीं किया पर दर्शन प्रतिमाधारी को पंचोदुम्बर तथा सप्तव्यसन का त्यागी बताया है और यहीं मद्य-मांस-मधु के दुर्गुणों का उल्लेख किया है। सोमदेव, देवसेन", पद्मनन्दी, अमितगति, आशाधर, अमृतचन्द्र" आदि आचार्यों ने प्रायः समन्तभद्र का अनुकरण किया है।
इस पर्यवेक्षण से यह स्पष्ट है कि अष्टमूलगुण की परम्परा आचार्य समन्तभद्रने प्रारम्भ की जिसे किसी न किसी रूप में उत्तरकालीन प्रायः सभी आचार्यों ने स्वीकार किया। अर्धमागधी आगमशास्त्रों में भी मूल गुणों का उल्लेख देखने में नहीं आया। अतः यह हो सकता है कि समन्तभद्र के समय मद्य, मांस, मधु का अधिक प्रचार हो गया हो और फलतः उन्हें उनके निषध को व्रतों में सम्मिलित करने के लिए बाध्य होना पड़ा हो।
षट्कर्म :
यहाँ यह भी ज्ञातव्य है कि कुन्दकुन्द, जटासिंहनन्दि तथा जिनसेन ने दान, पूजा, तप और शील को, श्रावकों का कर्तव्य कहा। उत्तरकाल में इन्हीं का विकास कर आचार्यों ने षट्कर्मों की भी स्थापना कर दी। भगज्जनसेनाचार्य ने पूजा, वार्ता, दान, स्वाध्याय, संयम और तप को श्रावक के कुलधर्म के रूप में स्थापित
१. बरांगचरित, २२.२९-३०. २. कार्तिकेयानुप्रेक्षा, ३२८. ३. हरिवंशपुराण,१८.४८. ४. चारित्रसार, ११.१२२. ५. वसुनन्दि श्रावकाचार, १२५-१३३. ६. उपासकाध्ययन, ८.२७०. ७. भावसंग्रह, ३५६. ८. पद्मनंदि पञ्चविंशतिका, २३. ९. सुभाषितरत्नसंवोह, ७६५. १०. सागारधर्मामृत, २.१८. ११. पुरुषार्थ सिपाय, ६१-७४,