________________
२६६ किया। सोमदेव और पअनन्दि ने भी इन्हें षट्कर्मों के नामसे स्वीकार किया। वार्ता, स्वाध्याय और संयम को शीलके ही अंग-प्रत्यंग मानकर यह संख्या बढ़ाई गई होगी, ऐसा न मानकर उन्हें स्वतन्त्र ही कहना चाहिए।
__ मूलगुणों के इतिहास से ऐसा लगता है कि धीरे धीरे लोगों की सरलता और बाह्य-प्रदर्शन की ओर प्रवृत्ति बढ़ती गई। अहिंसा, सत्य, अस्तेय आदि अणुव्रतों के स्थानपर पंचोदुम्बर त्याग का विधान बहुत छोटा है। रत्नमालाकार ने इसलिए पांच अणुव्रत और मद्य-मांस-मधु त्याग रूप अष्टमूलगुण पुरुष के माने है और पैचोदुम्बर तथा मद्य मांस मधु त्याग रूप मूलगुण बच्चों के माने है।' उदुम्बर फलों तथा मद्य मांस मधु के भक्षण की ओर हुई प्रवृत्ति को रोकने के लिए शायद यह विधान किया गया होगा। सावयधम्मदोहा में तो यहां तक कह दिया गया है कि आजकल जो मद्य-मांस-मधु का त्याग करे वही श्रावक है। क्या बड़े वृक्षों से रहित एरण्ड के वन में छाया नही होती ?
बारहवत
उपासकदशांग में श्रावक के बारह व्रतों का उल्लेख इस प्रकार मिलता है- पांच अणुव्रत - अहिंसा, अस्तेय, सत्य, स्वदारसंतोष और इच्छा-परिमाण। तथा सात शिक्षावत-दिग्वत, उपभोगपरिमाणवत अनर्थ दण्ड विरमण व्रत, सामायिक, देशावकाशिक, प्रोषधोपवास, और यथासंविभाग। जैन ग्रन्थों के अध्ययन से ऐसा लगता है कि महावीर का मूल उपदेश अहिंसा की पृष्ठभूमि में रहा होगा। बाद में उसीके स्पष्ट और विकसित रूप में बारह व्रतों की गणना आयी होगी। उवासगदसाओ (१.४७) में प्रथमतः दिग्वत और शिक्षाव्रत का निर्देश नहीं मिलता। उन्हें बाद में वहीं जोड़ दिया गया है। सल्लेखना और ग्यारह प्रतिमाओं का वर्णन यह अवश्य मिलता है।
१. आदिपुराण, ४१.१०४; ८.१७८; ३८.२४ २५. २. उपासकाध्ययन, भूमिका, पृ.६५-६६. ३. मधमंस मधुत्याग संयुक्ताणुव्रतानि नुः ।
अष्टो मूलगुणाः पञ्चोदुम्बरश्चार्यकेष्वपि ॥ रत्नमाला, १९. ४. मज्ज मंसु मह परिहरह क्षयइ सावउ सोइ।।
णीरक्वह एरवजि कि ण मवाई होह ।। सवयधम्मदोहा, ७७.