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अध्ययन से प्रारंभ होता है और मनन तथा चिन्तन से उसके पवित्र उद्देश्य में दृढ़ता आती है । सम्पत्ति का न्याय- पूर्वक अर्जन और फिर उसका निरासक्त विसर्जन सही मानवता का स्पन्दन बन जाता है । इतनी शान्त और अहिंसक प्रकृति का श्रावक ही निर्दोष और स्वच्छ वातावरण का निर्माण करता है । समाज और राष्ट्र का कल्याण ऐसे ही वातावरण में निहित है ।
अष्टमूलगुण परम्परा :
अष्टमूलगुण जैन गृहस्थ के आवश्यक व्रतों में गिने जाते हैं । परन्तु वे कौन-कौन हैं, इस सम्बन्ध में आचार्यों में मर्तनय नहीं । इस सन्दर्भ में दो परम्परायें मिलती हैं - एक परंपरा अष्टमूलगुणों का उल्लेख करती है भले ही नामों में मतभेद रहा हो और दूसरी परम्परा अष्टमूलगुणों का उल्लेख ही नहीं करती ।
अष्टमूलगुणों का सर्वप्रथम उल्लेख आचार्य समन्तभद्र ने किया और उन्होंने अहिंसा, सत्य, अस्तेय, अचौर्य और अपरिग्रह ये पांच अणुव्रत तथा मद्य, मांस, व मधु इनको मिलाकर अष्टमूलगुण माना है । परन्तु उनके पूर्ववर्ती आचार्य कुन्दकुन्दने अष्टमूलगुण का उल्लेख भी नहीं किया । मात्र बारह व्रतों के नाम गिना दिये । संभव है कुन्दकुन्द ने मद्य, मांस, मधु के भक्षण का निषेध अहिंसा के अन्तर्गत कर दिया हो अथवा यह भी सकता है कि उनके समय मद्य, मांस, मधु के खाने की प्रवृत्ति अधिक न रही हो समन्तभद्र के आते-आते यह प्रवृत्ति कुछ अधिक बढ़ गई होगी। इसलिए उसे रोकने की दृष्टिसे उन्होंने मूल गुणों की कल्पना कर उनके परिपालन का विधान कर दिया । परन्तु आश्चर्य है, तत्त्वार्थसूत्र के टीकाकार पूज्यपाद, अकलंक और विद्यानन्द ने भी उनका कोई उल्लेख नहीं किया ।
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।
रविषेण (वि. सं. ७३४) ने दोनों मतों का समन्वय किया । एक ओर उन्होंने केवली के मुख से श्रावक के बारह व्रतों की गणना की तो दूसरी ओर मधु, मद्य, मांस, द्यूत, रात्रिभोजन और वेश्यासंगम को छोड़ने के लिए "नियम" निर्धारित किया । प्रथम तीन के साथ-साथ अन्तिम दो दोषों का अधिक प्रचार हो जाने के कारण आचार्य को ऐसा करना पड़ा होगा। जटासिंहनन्दि ने कुन्दकुन्द का
१. रत्नकरण्ड श्रावकाचार, ६६.
२. चारित्र प्राभूत, २२.
३ पद्मपुराण, १४.२०२.
४. वही, १४.२७२.