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सप्तम से द्वादश गुणस्थान तक व्यवहार को गौण और निश्चय को प्रधान सम्बल बनाता है। इस प्रकार निश्चय और व्यवहार नय की दृष्टि से बारह भावनाबों का अनुचिंतन अपेक्षित है। साथ ही उत्तम क्षमादि दश धर्मों का भी पालन किया जाना चाहिए।
___ अनुप्रेक्षाओं और धर्मों का पालन करने से श्रावक की वृत्तियाँ शान्त होने लगती हैं और वह सम्यकत्व की ओर अग्रसर हो जाता है। सम्यकत्व होने से पूर्व उसे पांच लब्धियां प्राप्त होती है-१. क्षयोपशम (देशघाती स्पर्धा के उदय सहित कर्मों की अवस्था। २. विशुद्धि (मंदकषाय), ३. देशना (तत्वों का अवधारण. ४. प्रायोग्य अथवा यथाप्रवृत्तिकरण मंदता) और, ५. करण निर्मल परिणाम)। करणलब्धि के तीन भेद किये गये हैं-अधःकरण (पहले
और पिछले समय में परिणाम समान हों), अपूर्वकरण (अपेक्षाकृत अधिक विशुद्ध हों) और अनिवृत्तिकरण (हर समय परिणाम निर्मल हों)।
सम्यक्त्व के मेव:
परिणामों की निर्मलता के आधार पर ही सम्यकत्व के भेद किये गये हैं
१. औपशमिक सम्यकत्व-दर्शन मोहनीय के उपशम से, कीचड़ के नीचे बैठ जाने से निर्मल जल के समान, पदार्थों का जो निर्मल श्रवान होता है। वह उपशम सम्यकत्व है। यह ४ से ११ वें गुणास्थान तक रहता है।
२. क्षायोपशमिक सम्यक्त्व-दर्शन मोहनीय का उदय न हो पर सम्यक् मोहनीय का उदय हो। यह ४ से ७ वें गुणस्थान तक रहता है।
३. क्षायिक सम्यक्त्व :-दर्शन मोहनीय प्रकृतियों का उपशम हो जानेपर निर्मल तत्वार्थ श्रद्धान होना। यह ४ से ११ ३ गुणस्थान तक होता है।
४. वेदक सम्यक्त्व-दर्शन मोहनीय कर्म के अन्तिम कर्म पुद्गलों का वेदन करना। यह ४ से ७ वें गुणस्थान तक होता है।
५. सास्वादन सम्यक्त्व-११ ३ गुणस्थान से रागद्वेषादि से भ्रष्ट होकर जीव जब मिथ्यात्व गुणस्थान तक नहीं पहुंचता तब उस अवस्था को सास्वादन सम्यक्त्व कहते हैं। यह द्वितीय गुणस्थान में होता है।
श्रावक चर्या का यह क्रमिक विकास साधक की भावात्मक निर्मलता की विकासात्मक कहानी है। वह विचार और कर्म में समन्वय स्थापित कर समता और सहिष्णुता के बल पर अपना जीवन-यापन करता है। उसका जीवन