________________
२५६
दीर्षदर्शिता, (२७) विशेषज्ञता, (२२) कृतज्ञता, (२९) लोकप्रियता, (३०) लज्जालुता, (३१) कृपालुता, (३२) सौम्य आकार, (३३) परोपकार करने में तत्परता, (३४) अन्तरंग छ: शत्रुओं के परिहार के लिए उद्योगिता, और (३५) जितेन्द्रियता। हरिभद्रसूरि ने ऐसे गुणों को गृहस्थों के सामान्य धर्म में अन्तर्भूत किया है।
इन गुणों में धर्म के साथ ही अन्य क्षेत्रों से सम्बद्ध साधारण गुणों का भी समावेश कर दिया गया है । श्राद्धविधि में इन्हीं गुणों को संक्षेप में २१ बताया है(१) उदार हृदयी, (२) यशवन्त, (३) सौम्य प्रकृति वाला, (४) लोकप्रिय, (५) अक्रूर प्रकृतिवाला, (६) पाप से भय खाने वाला, (७) धर्म के प्रति श्रद्धावान, (८) चतुर, (९) लज्जावान, (१०) दयाशील, (११) मध्यस्थ वृत्तिवान्, (१२) गंभीर, (१३) गुणानुरागी, (१४) धर्मोपदेशक, (१५) न्यायी, (१६) शुद्ध विचारक, (१७) मर्यादा युक्त व्यवहारक, (१८) विनयशील, (१९) कृतज्ञ, (२०) परोपकारी, और (२१) सत्कार्य में दक्ष।'
इन गुणों से युक्त श्रावक निश्चित ही समाज और राष्ट्र का अभ्युत्थानकारी सिद्ध होगा। गे गुण सामाजिक धर्म है । जीवन में सफलता प्राप्ति के लिए उनकी नितान्त आवश्यकता होती है। अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, आदि जैसे गुण व्यक्ति के जीवन को स्वर्ग बनाने में समर्थ हो सकते हैं। भावकाचार के प्रतिपावन के प्रकार :
- जैन साहित्य में श्रावकाचार का वर्णन साधारणतः छह प्रकार से मिलता है। किसी ने ग्यारह प्रतिमाओं का आधार लिया है, तो किसीने बारह व्रतों का और किसीने पक्ष, चर्या और साधक आदि भेद किये है - (१) ग्यारह प्रतिमाओं का आधार लेकर श्रावकाचार का प्रतिपादन करने
वालों में आचार्य कुन्दकुन्द (चारित्र प्राभूत, २२). स्वामी
कार्तिकेय और वसुनन्दी प्रमुख है। (२) बारह व्रतों का आधार बनाकर आचार्य उमास्वामी (तत्वार्थसूत्र,
सप्तम अध्याय) और समन्तभद्र तथा हरिभद्र जैसे चिन्तकों ने श्रावकों की आचार- प्रक्रिया बतायी है। मल्लेखना को भी इसमें रखा
गया है। अष्ट मूलगुणों का पालन भी आवश्यक बताया है। १. मार गुण विवरण- मगरचन्द्र नाहटा द्वारा संकलित, जिनवाणी, जनवरी-मार्च,
१९७०, पृष्ठ ४५. २. श्रावक समाचारी - रूपचंद्र जैन, जिनवाणी, जनवरी-मार्च १९७०, पृष्ठ ८०.