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उसके सबल कंधों पर आ जाता है। इसलिए श्रावकाचार व्यक्ति को आध्यात्मिक क्षेत्र की ओर जाने के पूर्व सामाजिक कर्तव्य की ओर खींचता है। और जो व्यक्ति सामाजिक कर्तव्य को पूरा करता है वह आत्मकल्याण तो करेगा ही, साथ ही मानवता का भी अधिकतम उपकार करेगा। श्रावक का अर्थ भी यही है कि वो आत्मकल्याणकारी वचनों का श्रवण करे वह श्रावक है।' श्रावक प्रशप्ति में भी कहा गया है कि सम्यग्दर्शन आदि से युक्त जो व्यक्ति प्रतिदिन यतिजनों के समीप साधु और गृहस्यों के आचार का प्रवचन सुनता है वह श्रावक है- .
संपत्तदसणाई पयदियह जइजण सुई य।
सामायारि परमं जो खलु तं सावगं विन्ति ।
आशाधर ने श्रावक उसे माना है जो पञ्च परमेष्ठी का भक्त हो, दान-पूजन करने वाला हो, भेदविज्ञान रूपी अमृत को पीने का इच्छुक हो तथा मूलगुणों और उत्तरगुणों का पालन करने वाला हो।' इस प्रकार श्रावक का कर्तव्य धर्मश्रवण और उसका परिपालन, दोनों हो जाते हैं।
आचार्यों ने आगमों का मन्थन कर श्रावकों के गुणों को एकत्रित किया है। जिन मण्डन गणि ने ऐसे ३५ गुणों का उल्लेख किया है जिनका श्रावकों में होना आवश्यक है-(१) न्याय सम्पन्न वैभव, (२) शिष्टाचार की प्रशंसा, (३) कुल एवं शील की समानता वाले उच्च गोत्र के साथ विवाह, (४) पापभीरता, (५) प्रचलित देशाचार का पालन, (६) राजा आदि की निन्दा से अलिप्तता, (७) योग्य निवासस्थान में द्वारवाला मकान, (८) सत्संग, (९) माता-पिता का पूजन-आदर-सत्कार, (१०) उपद्रव वाले स्थान का त्याग, (११) निन्य प्रवृत्तियों से अलिप्तता, (१२) अपनी आर्थिक स्थिति के अनुसार व्यय करने की प्रवृत्ति, (१३) सम्पत्ति के अनुसार वेशभूषा, (१४) सुश्रुषा आदि आठ गुणों से युक्तता, १५) प्रतिदिन धर्म का श्रवण, (१६) अजीर्णता होने पर भोजन का त्याग, (१७) भूख लगने पर प्रकृति के अनुकूल भोजन, (१८) धर्म, अर्थ और काम का परस्पर बाधा रहित सेवन, (१९) अतिथि, साधु एवं दीन जन की यथायोग्य सेवा, (२०) सर्वदा कदाग्रह से मुक्ति, (२१) गुण में पक्षपात, (२२) प्रतिबद्ध देश एवं काल की क्रिया का त्याग, (२३) स्वावलंबन का परामर्श, (२४) व्रतधारी और ज्ञानवृद्धजनों की पूजा, (२५) पोष्यजनों का यथायोग्य पोषण, (२६)
१. श्रृणोति गुर्वाविम्योधर्ममिति भावक : सागार धर्मामृत, १.१५; सावय पन्नति,
गाथा २सामारधर्मामृतटीका १.१५, हरिभवसूरिने धर्मबिन्दू (१) में "गृहस्थवर्म'
को ही बावकधर्म कहा है। २. सागारधर्मामृत, १.१५.