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________________ २५७ (३) उपासकदशांग में बारह ब्रतों के साथ ही ग्यारह प्रतिमाओं का भी वर्णन किया गया है। लगता है, इसमें कुन्दकुन्द और उमास्वामी की परम्पराओं को सम्मिलित करने का प्रयास हुआ है। (४) कुछ आचार्यों ने श्रावकों को तीन श्रेणियों में विभाजित कर उनकी चर्या का विधान किया है। पाक्षिक, नैष्ठिक और साधक । आचार्य जिनसेन, सोमदेव और आशाधर उनमें प्रमुख हैं। (५) चारित्रसार (४१.३) में श्रावक के चार भेद मिलते है-पाक्षिक, चर्या, नैष्ठिक और साधक। (६) हरिभद्रसूरि ने धर्मबिन्दु (११) में सामान्य और विशेष धर्म का आख्यानकर श्रावकाचार का प्रतिपादन किया है । श्रावकाचार के उपर्यक्त प्रतिपादन प्रकारों को देखने से ऐसा लगता है कि धर्मसाधना का वातावरण जैसे-जैसे धमिल होता गया,श्रावकों की भी आचारप्रक्रिया वैसी-वैसी ही व्यवस्थित और समयानुकूल होती गई। परन्तु यहाँ दष्टव्य है कि प्रतिपादन के प्रकारों में बदलाहट के बावजूद जैन सभ्यता के मूल रूप में कोई विशेष अन्तर नही आया बल्कि ग्याख्या के दौरान वह राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय धर्म का रूप लेता रहा। इस दृष्टि से अंतिम तीनों प्रकार विशेष उपयोगी है यहां विवेचन करते समय हमने उन्ही को आधार बनाया है। पावक के भेद : उपर्युक्त प्रकारों के आधार पर साधारणत: जैन श्रावक की तीन श्रेणियां बतायी गयी है : पाक्षिक, नैष्ठिक और साधक।' चर्या नामक चौथा भेद भी इसमे जोडा जा सकता है पर इसे पाक्षिक श्रावक के अन्तर्गत रखा जा सकता है। अहिंसा पालन करनेवाला श्रावक 'पाक्षिक' कहलाता है। श्रावकधर्म का सम्यक् परिपालन करनेवाला श्रावक 'नैष्ठिक कहलाता है और मात्मा के स्वरूप की साधना करनेवाला श्रावक 'साधक' कहलाता है। आध्यात्मिक साधक की दृष्टि से श्रावक के ये तीन वर्ग अथवा सोपान है। इनको जघन्य, मध्यम और उत्तम श्रावक भी कहा गया है। श्रावक के ये भेद परिनिष्ठित रूप में समझना चाहिए। १. सागारधर्मामृत, १.२०.
SR No.010214
Book TitleJain Darshan aur Sanskriti ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain Bhaskar
PublisherNagpur Vidyapith
Publication Year1977
Total Pages475
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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