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इन विरोध-प्रकारों में से स्यावाद पर कोई भी विरोध नहीं आता। इसका मूल कारण यह है कि वस्तु अनन्तधर्मात्मक है और उन धर्मों को साधारण व्यक्ति तबतक नहीं समझ सकता जबतक वह भावाभावात्मक, मेवाभेदात्मक, नित्यानित्यात्मक, सामान्यविशेषात्मक, द्रव्यपर्यायात्मक आदि रूम से चिन्तन न करे। प्रत्येक द्रव्य स्वद्रव्यचतुष्टय से सम्बद्ध रहता है और परद्रव्यचतुष्टय से असम्बद। उदाहरणतः घट स्वयं में स्वद्रव्यचतुष्टय से विद्यमान है पर पट आदि की दृष्टि से वह उनसे भिन्न है । इस दैततत्व को कोई अस्वीकार नहीं कर सकता अन्यथा निषेधात्मक तत्व अदृश्य हो जायेंगे और उनकी पर्यायों में परस्पर मिश्रण हो जायेगा।'
जैन परम्परा की दृष्टि से अभाव चार प्रकार के हैं१. प्रागभाव-कारण में कार्य का अभाव । जैसे मिट्टी में घट पर्याय का
अभाव। २. प्रध्वंसाभाव-विनाश के बाद कार्य का अभाव । कारण नष्ट होकर
कार्य बन जाता है । घट पर्याय नष्ट होकर कपाल पर्याय बन जाती है । प्रागभाव उपादान है और प्रध्वंसाभाव
निमित्त । ३. इतरेतराभाव-एक पर्याय का दूसरी पर्याय में अभाव होना । जैसे
गाय घोड़ा नहीं हो सकती। ४. अत्यन्ताभाव-एक द्रव्य का दूसरे द्रव्य में कालिक अभाव । अन्यथा
सब द्रव्य सभी द्रव्यों में बदल जायेंगे।
अनेकान्तवाद और नेतर बार्शनिक :
वैदिक और बौद्ध आचार्यों ने अनेकान्तवाद के सन्दर्भ में अनेक प्रश्न खड़े किये जिनका उत्तर जैनाचार्यों ने अपने ग्रन्थों में भलीभांति दिया। विरोध का मूल स्वर यह है कि अस्तित्व और अनस्तित्व अथवा भाव और अभाव ये दो विरोधी धर्म एक ही पदार्थ में कैसे रह सकते हैं ? जैनाचार्यों ने कहा कि दो विरोधी धर्म एक ही पदार्थ में स्वद्रव्यचतुष्टय के बाधार पर रहते हैं और पखव्यचतुष्टय के आधार पर नहीं रहते ( सर्वमस्ति स्वरूपेण पररूपेण नास्ति च)। इसे हम पीछे स्पष्ट कर चुके हैं।
पदार्थ की उत्पत्ति, विनाश और स्थिति को 'अन्यथानुपपनत्वहेतु' के माध्यम से सिद्ध किया जाता है। इसे भी द्रव्यप्रकरण में लिख चुके हैं। बौद
१. स्थावावमंजरी, १४