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मावलि गोसाल, जो आजीविक सम्प्रदाय का प्रवर्तक माना जाता है, भी प्रथम तीन भंगों (विराशि) को स्वीकार करता है। वॉसिम ने उस पर जैनधर्म का प्रभाव बताया है, पर जयतिलके जैन धर्म को उससे प्रभावित बताते है। पर ये दोनों मत ठीक नहीं । हम दीपनस परिव्वाजक, जो पहले पावनाप परम्परा का और बाद में महावीर का अनुयायी बना, द्वारा मान्य तीन भंगों का उल्लेख कर आये हैं । अतः यह नहीं कहा जा सकता कि जैनधर्म में तीन भंगों की परम्परा थी ही नहीं। अधिक संभव है कि यह परम्परा सर्व सामान्य पही होगी। विरोष परिहार :
स्याहार सिद्धान्त के अनुसार एक ही पदार्थ में भेद और अभेद, नित्य और अनित्य जैसे तत्त्व समाहित रहते हैं। पर एकान्तवादी दर्शन इसे स्वीकार नहीं करते । उनका कथन है कि परस्पर विरोधी दो धर्म एक ही ताव में नहीं रह सकते । स्यावाद में उन्होंने साधारणतः निम्नलिखित दोषों को उपस्थित किया है
i) परस्पर विरोध-शीत और उष्ण के समान ii) वैयधिकरण्य-एक साथ एक ही स्थान में विरोधी धर्मों की स्थिति iii) अनवस्था-परम्परा के विधाम का अभाव iv) व्यतिकर-सामान्य और विशेष गुणों को एक ही स्वभाव में रहना। v) संकर-मिश्रण vi) संशय-संदेह vii) अप्रतिपत्ति-अनुपलब्धि viii) उभयदोष-दोनों ओर दोष
जैन दर्शन इन दोषों को स्वीकार नहीं करता । उपर्युक्त दोषों में परस्पर विरोष एक सर्वसाधारण दोष दिखाई देता है । जैनाचार्यों ने तीन प्रकार के संभावित विरोध बताये हैं।
i) बध्यषातकमाव-नकुल और सर्प के समान ii) सहानवस्थानभाव-एक स्थान में श्याम और पीत के बसद्भाव के समान iii) प्रतिबध्य-प्रतिबन्धकमाव-मेघ द्वारा सूर्य किरणों के रोकने के समान १. समकाय, १- ११-३४ 2. History and Doctrines of Ajivikas, P. 275 1. Early Buddhist Theory of knowledge, P. 156