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१. सति भावोत्पत्तिः को वेत्ति । २, मसति भावोत्पत्तिः को वेत्ति । ३. सक्सति भावोत्पत्तिः को वेत्ति, बोर । ४. अवक्तव्यं भावोत्पत्तिः को वेत्ति ।
में चारों भंग स्याद्वाद के प्रथम चार भंगों से समानता रखते हैं । अन्तर इतना ही है कि एक ओर जहाँ क्रियावादी वगैरह दार्शनिक विवादग्रस्त प्रश्नों मैं संदेह व्यक्त करते हैं या उन्हें अस्वीकार करते हैं वहीं जैन दर्शन कथञ्चित दृष्टि को लेकर किसी भी पक्ष में एक निश्चित विचार रखता है ।
इससे यह निश्चित होता है कि अमराविक्खेपवाद के आधार पर न. महावीर ने स्याद्वाद सिद्धान्त प्रतिपादित नहीं किया था। पर तीर्यकरों की परमवा से प्राप्त स्याद्वाद को परिस्थितियों के अनुसार उन्होंने व्याकृत किया। बाहोंने तात्कालिक दार्शनिक क्षेत्र में जो तीन या चार भंग उपयोग में आ रहे थे माही में 'स्वात्' शब्द का नियोजनकर वस्तु के सत्य-स्वरूप की व्यवस्था का प्रतिपादन किया और प्रत्येक सिद्धान्त का उत्तर एक निश्चित दृष्टिकोण से दिया। विकसित साहित्य में सात भंगों द्वारा सिद्धान्तों का और भी उत्तरकालीन स्पष्ट शब्दों में प्रतिपादन मिलता है।
अमराविखेपवाद के तुलनात्मक अध्ययन और विश्लेषण से स्पष्ट होता है कि-संजयवेलहियुत्त अपना पृथक् संप्रदाय स्थापित करने के पूर्व जैन मुनि रहा है। यह मुनिदीक्षा उसने पार्श्वनाथ सम्प्रदाय में ली होगी। दीघनखपरिबाजक संजय का भतीजा था। उसने भी संजय का अनुकरण किया होगा । यही कारण है कि उसके सिद्धान्त में जनदर्शन का अनेकान्त पक्ष दिखाई देता है। इसलिए अमराविखेपवाद अथवा संजय को भ. महावीर के स्यावाद सिद्धान्त का पुरस्कर्ता नहीं कहा जा सकता। इसके विपरीत संभव यह है कि संजय वेलट्ठिपुत्त ने चतुष्कोटियों अथवा स्याद्वाद की भंगियों का वास्तविक तात्पर्य न समझकर तात्कालिक दार्शनिक समस्याओं के सुलझाने में एक तटस्थ वृत्ति धारण की हो । वास्तव में स्याद्वाद एक ऐसा दार्शनिक सिद्धान्त है जिसके बीज औपनिषदिक साहित्य, बोट साहित्य एवं अन्य दार्शनिक ग्रन्थों में प्राप्य ईबस्तु की निष्पक्ष और सत्य मीमांसा अनेक दृष्टिकोणों का समावेश किये बिना सम्भव नहीं। यही कारण है कि पालि साहित्य में वस्तु-विवेचन के सन्दर्भो में सप्तमंगी न्याय के कई भंग-दृष्टिकोण उपलब्ध होते हैं।
१. अमितगति श्रावकाचार,
3. Dictionary of Pal Proper e
os.