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ये चारों भंग जैन दर्शन द्वारा स्वीकृत प्रथम चार अंगों के समान ही हैं । अमराविक्खपवाद में भी ये चारों ही भंग दिखाई देते हैं, जैसा हम पीछे देख चुके हैं ।
जैनागमों में भी ये भंग दृष्टिगोचर होते हैं । उदाहरणतः भगवती सूत्र में गौतम के प्रश्न के उत्तर में भ. महावीर ने कहा
१. स्व के आदेश से आत्मा है ।
२. पर के आदेश से आत्मा नहीं है ।
३. तदुभय के आदेश से अवक्तव्य है ।
यहाँ एक विशेषता दिखाई देती है । वह यह कि अवक्तव्य को तृतीय स्थान दिया गया है और तृतीय कोटि (अनुभय) समाप्त कर दी गई है । पर यह भी ध्यान देने योग्य बात है कि तृतीय भंग में जो तदुभय है उसमें विधि और निषेध दोनों का समन्वय है । यदि ऐसा माने तो लगता है, जैनागम युग में तृतीय और चतुर्थ दोनों मंगों को एक कर दिया गया । पर बाद के बाचायों ने उसे पृथक्-पृथक् करके पुनः चार भंग स्थापित किये । शेष तीन भंग प्रणाम चार मंत्रों के विस्तृत रूप हैं जो जैनों के अपने हैं ।
अमराविक्खेपवाद और जनो के स्याद्वाद को देखकर कीथ जैसे अनेक घुरन्धर विद्वानों ने संजय को ही स्याद्वाद की पृष्ठभूमि में लड़ा बताया ।
कोबी ने स्याद्वाद को संजय के अज्ञानवाद (अनिश्चिततावाद ) के विपरीत उपस्थित किया गया सिद्धान्त माना । नियमीतो ने इसे बुद्ध द्वारा स्वीकृत अव्याकृत के समकक्ष बताने का प्रयत्न किया ।
यं स्थापनायें सही नहीं दिखतीं । स्याद्वाद की पृष्ठभूमि तैयार करने में वास्तविक श्रेय संजय को नहीं है। श्रेम तो उस वेद, उपनिषद् वीर बुक तथा महावीर की सामयिक परिस्थिति को है जहाँ प्रथम चार कोटियों द्वारा ि का वर्णन किया जाता रहा है । शीलांक ने चतुष्कोटि को मानने वाले चार सम्प्रदायों का उल्लेख किया है - क्रियावादी, अक्रियावादी, अज्ञानवादी और वैनयिक । जैन दर्शन के नव पदार्थों के आधार पर इन्हीं चारों को ३६३ मतसम्प्रदायों में विभक्त किया गया। ये सभी सम्प्रदाय मुख्यतः चार प्रकार के भवनों से सम्बन्ध रखते थे- '
1. Buddhist Philosophy, P. 303
२: जैन सूत्र, भाग २, SBE - भाग १५, भूमिका - XXVII
3. Buddhism and Culture, P. 71
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