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ये चारों भंग जैन दृष्टि से निम्न प्रकार कहे जा सकते हैं
१, स्यादस्ति
२. स्यान्नास्ति
३. स्यादस्ति नास्ति, और
४. स्यादवक्तव्य
प्रथम भंग विधिपक्ष, द्वितीयभंग निषेधपक्ष, तृतीय भंग समन्वय पक्ष और चतुर्थ भंग वचनागोचर अतएव अवक्तव्य का प्रतिनिधित्व करता है । इन चारों का विकास क्रमिक रूप से हुआ है। प्रथम तीन भंग ऋग्वेद के नासदीय सूक्त में स्पष्टतः उपलब्ध होते हैं । प्रथम दो भंग तो शायद ऋग्वेद से भी पूर्व के होंगे । यही कारण है कि नासदीय सूक्त के ऋषि ने उनका उल्लेख स्पष्ट न करके सीधे तृतीय भंग का उल्लेख कर दिया-जगत का आदि कारण न सत् है और न असत् ।"
प्रस्तुत सूत्र से प्रतीत होता है कि ऋषि के समक्ष सत् और असत् ये दोनों कोटियाँ उपलब्ध थीं । समन्वय की दृष्टि से उन्होंने " जगत का आदि कारण सत् भी नहीं और असत् भी नहीं" कहकर एक तीसरी कोटि स्थापित की जिसे अनुभय कहा जा सकता है। जैनदर्शन में इसे ही 'स्यादस्ति नास्तिच' कहा गया है । उपनिषदों में ब्रह्म को ही जब परम तत्व स्वीकार किया गया वो स्वभावतः आत्मा या ब्रह्म को अनेक विरोधी धर्मों का केन्द्र बन जाना पड़ा। इन विरोधी धर्मों के समन्वय करने में ऋषियों को जब पूर्ण सन्तोष न दिखाई दिया तो उन्होंने चतुर्थ भंग तैयार किया कि ब्रह्म-आत्मा वचन- अगोचर- अवक्तव्य है ।"
इस विवेचन से हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि उपनिषद्काल में वे चार मंग बन चुके थे ।
i) सत् ii) असत्
iii) सदसत्, और iv) अवक्तव्य
१. नासदासीनो सदासीत् तदानीं नासीव्रजो नो व्योमापरो यत् ।
-मेद १०.१२९.
२. सदासीद्वरेण्यम्, मुण्डकोपनिषद, २.२.१: नेतादवतरोपनिषद्, १.८ बढो बाचा निवर्तन्ते, तैतिरीय, १.४ खाम्बो, २,१९.१११.