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चतुर्थ सम्प्रदाय संजयवेलट्ठिपुत्त का है जो आत्मविषयक प्रश्नों के उत्तर संजय ने उत्तर देने का जो माध्यम बनाया
में कोई निश्चित उत्तर नहीं देता । उसके पाँच भंग अधोलिखित हैं
१. एवं पि मे नो ( मैं ऐसा भी नहीं कहता ) 1 २. तथापि मे नो ( मैं वैसा भी नहीं कहता) ।
३. अञ्ञथापि मे नो (अन्यथा भी नहीं कहता ) ।
४. नो तिपि नो ( ऐसा नहीं है, यह भी नहीं कहता ) ।
५. नो तिपि मे नो (ऐसा नहीं नहीं है, यह भी नहीं कहता ) ।
aafनकाय अट्ठकथा में उपर्युक्त सिद्धान्त की दो प्रकार से व्याख्या प्रस्तुत की गई है। द्वितीयभंग शाश्वतवाद का निषेधक है । तृतीयभंग शाश्वतबाद का एकात्मक निषेधक है जो 'अञ्ञथा' से कुछ भिन्न हैं । चतुर्थभंग उच्छेदवाद का निषेधक है और पंचमभंग "मरने के बाद आत्मा का अस्तित्व है या नहीं" इसका निषेध करता है ।
द्वितीय व्याख्या के अनुसार प्रथम भंग निश्चित कथन का निषेध करता है, जैसे "क्या यह अच्छा है" पूछे जाने पर वह उसे अस्वीकार करता है । द्वितीय भंग साधारण निषेधात्मक उत्तर को अस्वीकार करता है, जैसे "क्यों यह अच्छा नहीं है" पूछे जाने पर वह स्वीकार नहीं करता । तृतीय भंग प्रथम और द्वितीय दोनों भंगों को अस्वीकार करता है । तात्पर्य यह है कि जो कुछ आप कह रहे हैं वह प्रथम व द्वितीय भंग से भिन्न है । उसे भी तृतीय भंग स्वीकार नहीं करता । चतुर्थ भंग तृतीय भंग को अस्वीकार करता है । पंचम भंग निषेध का भी निषेध करता है । "क्या वह प्रत्येक वस्तु के अस्तित्व का निषेध करता है" इस प्रश्न के उत्तर में भी निषेधारक स्वर है । इस प्रकार अमराविक्खेपवाद किसी भी पक्ष पर स्थिर नहीं रहता ।
उपर्युक्त मंगों की ओर दृष्टिपात करने पर यह स्पष्ट है कि पंचम गंग निषेध का भी उत्तर निषेधात्मक रूप से देता है । इसलिए संजय के सिद्धान्त में प्रथम चार गंगों का ही मूलतः अस्तित्व है । सामञ्ञफलसुत्त में भी संजय ने प्रथम चार गंगों का ही आधार लिया है
१. अस्थि परो लोको
1
२. नत्थि परो लोको ।
३. अस्थि च नत्थि च परो लोको ।
४. नेवत्थि न नत्थि परो लोको ।