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इस विवेचन से हम अनेकान्तवाद के विकास को निम्नलिखित सोपानों में विभक्त कर सकते हैं
i) एकंसवाद-अनेकंसवाद ii) सत्-असत्-उभयवाद iii) चतुर्थभंग-अवक्तव्य iv) सप्तभंग, और
५) विनय अथवा सप्तनय अमराविलेपवार और स्यावाद :
विकास के ये विविध रूप पालि साहित्य में भी दिखाई देते हैं । वहाँ कुछ रूप ऐसे भी मिलते हैं जिनमें स्याद्वाद सिद्धान्त झलकता है। ब्रह्मजाल सुत्त में निर्दिष्ट अमराविक्खेपवाद भी एक ऐसा सम्प्रदाय रहा है जो पावनाय और महावीर के समान ही पदार्थ-चिन्तन किया करता था।
अमराविक्खेपवाद में अमरा नामक मछलियों के समान कोई स्थैर्य नहीं । उनकी दृष्टि में प्रत्येक वस्तु के विषय में उपस्थित किया गया विचार अज्ञानता और अनिश्चितता से ग्रस्त रहता है। ब्रह्मजाल सुत्त में इसके चार उपसम्प्रदायों का उल्लेख मिलता है। प्रथम उपसम्प्रदाय के अनुसार "श्रमण-ब्राह्मण यह नहीं जानता कि यह कुशल है या अकुशल । उसके मन में एसा विचार आता है कि मैं स्पष्टतः नहीं जानता हूँ कि यह कुशल है या अकुशल है। यदि में यथाभूत जाने बिना यह कह दूं कि यह कुशल है और यह अकुशल है तो यह कुशल है और यह अकुशल है" यह असत्य भाषण होगा। और जो मेरा असत्य भाषण होगा, वह मेरा घातक होगा । और जो घातक होगा वह अन्तराय होगा । अतः वह असत्य भाषण के भय या घृणा से न यहक हता है कि "यह अच्छा है" और न यह कि "यह बुरा है" । प्रश्नों के पूछे जाने पर वचनों में विक्षेप दिखाई देता-स्थिर ष्टि से बात नहीं करता यह भी मैंने नहीं कहा, वह भी नहीं कहा, अन्यथा भी नहीं, ऐसा भी नहीं है-यह भी नहीं, ऐसा नहीं-नहीं है-यह भी नहीं कहा। इस सम्प्रदाय की दृष्टि में जो बान स्वर्ग या मोम-प्राप्ति में बाधक होगा उसकी प्राप्ति असंभव है।अमराविक्षेपवाद का द्वितीय-तृतीय भेद उपादानभय और अनुयोगमय के कारण कौन कुखल है और कौन अकुसल है, इस विषय में कोई उत्तर नहीं देता।'
१. दीपनिकाय, अट्ठकथा, १.११५ २. दीघनिकाय, मान १, पृ. २३-२४. १.बही, बटुकथा, भाग १, पृ. १५५ १.पी. भाग २४-२५