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भी इसे स्वीकार करते हैं । उनके मत में सजातीयक्षण उपादानकारण बनते हैं । इसे जैन परिभाषा में 'ध्रौव्य' कह सकते हैं और बौद्ध परिभाषा में 'सन्तान' । धौम्य या सन्तान के माने बिना स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, बन्ध-मोक्ष नांदि नहीं हो सकते ।
प्रत्येक द्रव्य में भेदाभेदात्मक तत्व रहते हैं । द्रव्य से गुण और पर्यायों को पृथक नहीं किया जा सकता । व्यवहार की दृष्टि से उनकी संज्ञा बादि में भेद अवश्य हो जाता है । वादिराज ने अर्चंट के खण्डन का खण्डन इसी आधार पर किया ।
जात्यन्तर के आधार पर भी विरोधात्मकता को समझा जा सकता है । ख्वाहरणतः स्वभाव को देखकर किसी को 'नरसिंह' कह देना 1 पदार्थ में भेदाभेदात्मक तत्वों का संमिश्रण रहता ही है । इसी को जात्यन्तर कहते हैं । अपेक्षा की दृष्टि से वे एक स्थान पर बने रहते हैं । अतः कोई विरोध नहीं ।"
धर्मकीर्ति का यह तर्क भी व्यर्थ है कि पदार्थ के सामान्यविशेषात्मक होने से दही और ऊंट एक हो जायेगा । अकलंक ने इसका उत्तर देते हुए कहा कि 'सर्वोभाबास्तदतत्स्वभावा:' के अनुसार दही और ऊंट पदार्थ की दृष्टि से एक हैं पर स्वभावादि की दृष्टि से पृथक् न होते तो दही को खाने वाला ऊँट क्यों नहीं खा लेता ? सामान्य का तात्पर्य है सदृश परिणाम । दही और ऊँट सदृश परिणामवाले नहीं । अतः साधारणतः उनमें कोई सम्बन्ध नहीं । दही पर्यायें अलग रहती हैं और ऊँट की पर्यायें अलग रहती हैं । न दही को ऊँट कह सकते हैं और न ऊँट को दही । अकलंक ने यह भी कहा कि यदि दही और ऊँट की पर्यायें एक हो सकती हैं तो सुगत पूर्व पर्याय में मृग थे, फिर सुगत की पूजा क्यों की जाती और मृग क्यों खाने के काम आता है ? अत: द्रव्य और पर्यायों में तादात्म्य और नियत सम्बन्ध होना आवश्यक है । कोई भी द्रव्य अपनी संभावित पर्यायों में ही परिणत हो सकता है ।"
शंकर, रामानुज, बल्लभ आदि वेदान्ताचार्यों ने भी इसी प्रकार के प्रश्न अनेकान्तवाद के सन्दर्भ में किये हैं । आधुनिक विद्वान भी उनके प्रभावों से उन्मुक्त नहीं हो सके । इसका मूल कारण यह रहा है कि अनेकान्तवाद को
१. न्यायविनिश्चयविवरण, १०८७
२. अनेकान्तजयपताका, भाग १, पू. ७२; न्यायकुमुदचन्द्र, १.३४९.
३. म्यायविनिश्चयविवरण, भाग २, पृ. २३३; न्यायविनिश्चय, सिद्धिविनिश्चय स्ववृत्ति, ६.३७.
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