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समय चलती है उसी समय गौ है, न तो बैठने की अवस्था में वह गौ है और न सोने की अवस्था में । अतः यह क्रियावाचक है। सबनम मौर मर्षनय :
उपर्युक्त शब्द नयों को दो भागों में विभाजित किया गया है- अर्थनय और शब्दनय । नैगम, संग्रह व्यवहार और ऋजुसूत्र नय अर्थवाही होने से अनय हैं और शब्द, समभिरूट एवं एवंभूत नय शब्द से सम्बद्ध होने के कारण शब्दनय हैं । इन नयों का विषय और क्षेत्र उत्तरोत्तर सूक्म, अल्प बोर पूर्व-पूर्व हेतुक है । ये नय पूर्व-पूर्व में विरुद्ध और महाविषय वाले हैं और उत्तरोत्तर अनुकूल और अल्प विषय वाले हैं। नंगमनय सत्-असत् दोनों को ग्रहण करता है पर संग्रह नय मात्र सत् को। व्यवहारनय 'सत्' में भी त्रिकालवर्ती सद् विशेष को विषय करता है। ऋजुसूत्रनय त्रिकालवर्ती में भी केवल वर्तमान अर्थ को ही ग्रहण करता है और कालादि के भेद से अर्थ को भेदरूप नहीं मानता । पर शब्दनय कालादि के भेद से अर्थ को भेदरूप मानता है। शब्दनय में पर्याय भेद से अभिन्न अर्थ को स्वीकार किया जाता है पर समभिरूपनय में अर्थ को भेद रूप माना जाता है। समभिरूढ़नय से एवंभूतनय अल्पविषय वाला है। क्योंकि समभिरूढनय क्रियाभेद होने पर भी अभिन्न अर्थ को विषय करता है परन्तु एवम्भूतनय क्रियाभेद से अर्थ को भेदरूप ग्रहण करता है।
ये सभी नय ज्ञानात्मक हैं क्योंकि अपने अर्थ को स्पष्ट करते हैं। वे बतीत, अनागत और प्रत्युत्पन्न विषय को ग्रहण करते हैं । अतीत और अनागत का विषय नैगमादि प्रथम तीन नयों में और वर्तमान का विषय ऋजुसूत्रादि शेष चार नयों में आता है । ये नय वस्तु के भिन्न-भिन्न पक्षों को प्रस्तुत करते है। अत: यदि अन्य पक्षों का निषेध न किया जाये तो नय मिथ्या नहीं होते। मर्ष पर्याय और व्यञ्जन पर्याय :
यहाँ यह भी जान लेना आवश्यक है कि पर्यायें दो प्रकार की होती हैमर्ष पर्याय और व्यञ्जन पर्याय । अर्थपर्याय सूक्ष्म है, ज्ञानविषयक है, अतः शब्द से नहीं कही जा सकती । वह क्षण-क्षण बदलती रहती है । परन्तु व्यंजन पर्याय स्थूल है, शब्द गोचर है और चिरस्थायी है। अर्थपर्याय को गुण कह सकते हैं और व्यंजन पर्याय को द्रव्य । जैसे जन्म से लेकर मरण पर्यन्त पुरुष में 'पुरुष' शब्द का प्रयोग होता है। यह व्यञ्जनपर्याय का दृष्टान्त है। पुरुष में बाल्य यौवन, वृद्धत्व बादि का जो आभास होता है वह पर्व पर्याय का उदाहरण है।'
१. सन्मति प्रकरण १. १२-11