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ऋजुत्रनय :
ऋजुसूत्रनय मात्र वर्तमान क्षणवर्ती क्षुद्र अर्थपर्याय को ही विषय करता । उसे अतीत और अनागत से कोई सम्बन्ध नहीं। वह तो पर्याय अथवा भेद से ही सम्बन्ध रखता है ।" इस दृष्टि से कुम्भकार शब्द का व्यवहार नहीं हो सकता । क्योंकि शिविक आदि पर्यायों के बनाने तक तो उसे कुम्भकार कह नहीं सकते | अब जब कुम्भ के बनने का समय आता है तब वह अपने अवयवों से स्वयमेव घड़ा बन जाता है । फिर उसे कुम्भकार कैसे कहा जाय ? यह नय लोकव्यवहार की चिन्ता बिलकुल नहीं करता । यहाँ तो उसका विषय बतलाया गया है । व्यवहार तो पूर्वोक्त व्यवहार आदि नयों से सब ही जाता है । पर्यायार्थिक नय का क्षेत्र यहीं से प्रारम्भ होता है। सौत्रान्तिकोंका क्षणभंगवाद ऋजुसूत्रनयामास के अन्तर्गत कहा गया है ।
५. शब्बनय :
इसमें काल, कारक, लिंग, संख्या आदि के भेद से भिन्न-भिन्न अर्थों को ग्रहण किया जाता है ।" व्यवहार नय काल, कारक आदि का भेद होने पर भी अर्थ भेद स्वीकार नहीं करता । ऋजुसुल नय वर्तमान पर्याय का ही ग्राही होता है किन्तु उसमें शेष नाम, स्थापना पर्याय द्रव्य रूप तीनों, घट नहीं पाते। यह विषय शब्दनय का रहता है । इन्द्र, शुक्र, पुरन्दर आदि पर्यायभेद होने पर भी एक हैं, समानार्थक हैं । इस नय में समानार्थक शब्दों में भी काल, लिङ्ग आदि के भेद से भिन्नार्थकता हो जाती है ।
६. समभिरूडनय :
यह नय शब्दभेद से अर्थभेद मानता है । इसमें शब्द अनेक अर्थों को छोड़कर किसी एक अर्थ में मुख्यता से रूढ़ हो जाता है । जैसे- गो शब्द वाणी, पु आदि ग्यारह अर्थों में प्रयुक्त होने पर भी सबको छोड़कर मात्र 'गाय' अर्थ में रूढ़ हो गया है। इसी प्रकार शब्द-भेद से अर्थभेद भी देखा जाता है । इन्द्र शक्र, पुरन्दर आदि शब्द पर्यायवाची हैं। फिर भी उनका अर्थ पृथक्-पृथक् है
७. एवंभूतनय :
यह नय शब्द के वाक्यार्थ को प्रगट करता है । अर्थात् जिस समय जं पर्याय या क्रिया हो उस समय तद्वाची शब्द के प्रयोग को एम्भूतनय कह हैं । जैसे दीपन क्रिया होने पर ही दीपक कहा जाय, अन्यथा नहीं । गी जि
२. मेदं प्राधान्यतोऽन्विच्छन् नुसूत्र नमो मतः- लघीयस्त्रय, १.१.७२ २. सन्मा॑त॒प्रकरण, १.५