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२. संपहनपः
एक जातिगत सामान्य का संग्रह करना संग्रहनय है जैसे- "सत्" के कहने से समस्त सद्रूप द्रव्यों का ग्रहण हो जाता है। इस प्रकार का सन् 'महा सामान्य' है और गोत्वादिक सामान्य को 'अवान्तर सामान्य' कहते हैं। 'सामान्य' नित्य और सर्वगत होता है पर 'विशेष' ऐसा नहीं होता। वह बपुष्प के समान निःसामान्य होता है । यह नय अभेद दृष्टि प्रधान है, तथा समान धर्म के आधार पर एकत्व की स्थापना करता है। मनुष्यत्व की दृष्टि से मनुष्य जाति एक है।
संग्रहनय के दो भंद है- पर संग्रह और अपर संग्रह । पर संग्रह सत् रूप बद्रव्य को ग्रहण करने वाला है .परन्तु अपर संग्रह में पर संग्रह द्वारा गृहीत वस्तु के विशेष अंशों को ग्रहण किया जाता है। इस प्रकार संग्रह नव में अवान्तर भेदों को एकत्र रूप में संग्रह कर दिया जाता है। पुरुषावैतवाद, शानाद्वैतवाद, शब्दाद्वैतवाद आदि दर्शन संग्रहनयाभासी हैं क्योंकि वे भेदों का निराकरण कर मात्र सत्ताद्वैत को ही ग्रहण करते हैं ।
३. व्यवहार नय : ____संग्रह नय के द्वारा गृहीत अर्थ में विधिपूर्वक भेद करके ग्रहण करने वाला मय व्यवहार नय है।' जैसे पर संग्रह (महा सामान्य) नय में व्यक्त 'सत्' व्यवहार नय में द्रव्य पर्याय कहा जायेगा। अपर संग्रह (अवांतर सामान्य) में सभी द्रव्यों को द्रव्य रूप से और सभी पर्यायों को पर्याय रूप से ग्रहण किया जायेगा। इसी प्रकार व्यवहार नय जीवादि के भेद से जीव को छ: प्रकारका बतायेगा और पर्याय की दृष्टि से दो प्रकार का-सहभावी और क्रमभावी। व्यवहार नय तब तक भेद करता जाता है जब तक भेद होना संभव होता है। वनस्पति जानने पर उसका थाम्ररूप का निर्धारण होना व्यवहार नम है। वस्तु सामान्य-विशेषात्मक होती है । नैगमनय में उसे प्राधान्य और मोणता की दृष्टि से ग्रहण किया जाता है, पर व्यवहार नय मात्र संग्रहनय द्वारा गृहीत पदायों के भेद-प्रभेद करता है। योगाचारों का विज्ञानवाद और माध्यमिकों का शून्यवाद व्यवहार नयाभास है। व्यवहार नय भेदवादी है। मनुष्यत्व की दृष्टि से समान होने पर भी मनुष्य-मनुष्य के बीच प्रत्यक्ष रूप से दिखाई देने वाला भेद का दिग्दर्शक व्यवहार नय है। १. जीवाजीव प्रमेवा यदन्तींनास्तदस्ति सत् । एक यवा स्वनिर्मासि भानं जीवः स्वपर्यायः ।।
-कीयस्वय, २.५.३१ २. मनोविषिपूर्वकमवहरवं मवहार-वताराववातिज. .