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पालि साहित्य में नयवाद :
पालि साहित्य में नयवाद की कतिपय विशेषतायें मिलती हैं। बुद्ध ने कालाम से जान-प्राप्ति के सन्दर्भ में दस संभावित मार्गों का निर्देश किया हैi) अनुस्सवेन, ii) परंपराय,iii) इतिकिरियाय, iv) पिटकसंपदाय, ४) भव्यरूपताय, vi) समणो न गुरु, vii) तक्किहेतु, viii) नयहेतु, ix) आकारपरिवितक्केन, और x) दिट्ठिनिज्मा नक्सन्तिया । इनमें 'नयहेतु' दृष्टव्य है। यहाँ 'नय' का तात्पर्य है-कथन-रीति जो एक निश्चित निर्णय को व्यक्त करती है। इसका प्रयोग उसी अर्थ में हुआ है जिस अर्थ में जनदर्शन में मिलता है। बौड दर्शन में सम्मति सच्च और परमत्यसच्च का भी व्यवहार हुआ है। जिन्हें पर्यायाथिकनय और द्रव्याथिकनय अथवा व्यावहारिक नय और निश्चयनय कहा जा सकता है । सुनय और दुर्नय का भी प्रयोग मिलता है।' निश्चयनव और व्यवहारनय :
उपर्युक्त नयों में मूलनय निश्चय और व्यवहार ही हैं। शेषनय उनके विकल्प या भेद हैं। द्रव्याथिक और पर्यायाथिकनय निश्चयनय की सिद्धि के कारण होते हैं। निश्चयनय (शुद्धनय) को भूतार्थ और व्यवहार नय को अभूतार्थ की भी संज्ञा दी गई है। निश्चयनय अभेदग्राही है, द्रव्याश्रयी है और निर्विशेषणी है तथा व्यवहार नय इसके विपरीत है। निश्चयनय वस्तु के
कालिक ध्रुव स्वभाव का कथन करता है पर व्यवहार नय उसकी पर्यायों पर केन्द्रित रहता है। संसारी जीव व्यवहार नय के माध्यम से निश्चय नय की ओर जाते हैं। अतः निश्चय नय को समझने के लिए व्यवहार नय एक सोपान है। इसलिए दोनों नयों की समान आवश्यकता है। आचार्य कुन्दकुन्द ने इसी को स्पष्ट किया है-कि जो शुद्धनय तक पहुँचकर श्रद्धा के साथ पूर्ण ज्ञान और चारित्रवान् हो गये हैं उन्हें तो शुद्ध (आत्मा) का उपदेश करने वाला शुद्धनय जानने योग्य है और जो अपरम् भाव में अर्थत् श्रद्ध, ज्ञान और चारित्न के पूर्णभाव को न पहुंचकर साषक अवस्था में स्थित हैं वे व्या हार द्वारा उपदेश करने योग्य हैं
सुखा सुखावेसो णायव्यो परमभावारिसीहि ।
ववहार देसिया पुण जे दु अपरमे दिदा भावे ॥ १. अंगुत्तर निकाय, (रो), द्वितीय भाग, पृ. १९१-३. २. नयेन नेति, संयुक्त (रो.), भाग २. पृ. ५८; अनयेन नयति दुम्मेवो, जातक (रो.)
भाष ४, पृ. २४१. ३. मिलिन्दपम्हो, संयुत्तनिकाय, माध्यमिककारिका, बादि ग्रन्थ देखिये। ४. अनुत्तर निकाय (रो.), भाग ३, पृ. १७८ ५. समय प्रावण १२
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