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अनेकान्तबाद :
जैसा हम देख चुके हैं, पदार्थ अनेकान्तात्मक होता है और उसमें समासतः दो गुण होते हैं- सामान्य और विशेष । पार्थ की इन दोनों विशेषताओं के कारण चिन्तकों में उसके सम्बन्ध में प्राचीन काल से ही.मतभेद दिखाई देता है। कोई उसे सामान्यात्मक मानता है तो कोई विशंपात्नक और कोई सामान्यविशेषात्मक । दार्शनिक क्षेत्र में शंकर का विवर्तवाद, वौडों का असत्कार्यवाद, सांस्यों का सत्कार्यवाद और न्याय-वैशेषिकों का अनिर्वचनीयवाद इस संदर्भ में विशेष उल्लेखनीय है। ये सभी मतवाद एकान्तवादिता के कारण परस्पर विवाद और संघर्ष करते रहे हैं।
भगवान महावीर और उनके अनुयायी जैन आचार्यों ने इन विवादों की भूमिका को भलीभांति समझा और उन्होंने प्रत्येक मतमेद के लप्यांश को स्वीकार किया। ये सभी मत ऐकान्तिक दृष्टिकोण को लिए हुए थे। कोई पवार्य के सामान्य तत्व को मानते तो कोई विशेषतत्व को। नाचायाने दोनों एकान्तवाषियों की बात मानकर बनेकान्तवाद की प्रस्थामना की। इससे दोनों प्रकार के पानिकों के सिवान्तों का न तो मनावर हुमा और मदुराग्रह। बल्कि वस्तुपको सही रूप से समझने का मार्ग प्रशस्त हुमा।
बनेकावार के अनुसार पार्ष (सन्) में तीन प्रकार के गुण होते हैंउत्पाब, व्यवीर प्रीय स्ववाति को न छोडवे हुए जब चेतन-बवेदन प्रय मर्यावान्तर की प्राप्ति करता है सबसे 'उत्साद' कहते हैं। जैसे मुपिण्ड से पट पर्याप की उत्पत्ति होती है। इसी प्रकार पूर्व पर्याय के विनाश को 'व्यय' कहते है की उत्पति होने पर पिग्मनार मिट्टी का विनाश होता है। बनावि पारिवारिक समावस्मयोर उत्पादनहीं होते किन्तु इल्य स्थित रहता है, 'ध्रुव' बना रहता है । पिण्ड और पर, कोनों बक्समाबों में अपना का बत्वय है .यहाँ माय.और उत्पाद को सर्वथा अभिल नहीं कहा जा.सकता, किन्तु कश्चित् कहकर उसके वास्तविक स्वरूप को प्रस्तुत किया जा सकता है। व्यय और उत्पाद के समय भी द्रव्य स्थिर रहता है। अतः दोनों में भेद है और तव्य पाति का परित्याग दोनों नहीं करते अतः अभेद है। यदि सर्वषा
र होता तो द्रव्य को छोड़कर उत्पाद बोर व्यय पृषक मिलते और यदि सर्वचा.बभेद होता तो एक काममाव होने पर शेष सभी का अभाव होता । कार ऐसा होता नहीं । अतःल्य कञ्चित् भेदात्मक है।
१.पति प्रकारका १२