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क्रय के सामान्य और विशेष यं दो स्क्रूफ होते हैं। सामान्य, उत्सर्ग जन्मक वीर गुरु के समानार्थक शब्द हैं। विशेष : बंद और पर्याय मे पर्यायार्थक शक है । 'सामान्य को विषय करने वाला क्रमाविनय है और विशेष को विक्रय करने वाला पर्यायार्थक नय है । दोनों अयुतसिद्ध रूप द्रव्य हैं। दोतों को क्रमशः श्चियनय, कोर व्यवहारनय भी कहते हैं ।"
गुण और पर्याय के सम्बन्ध में जैन दार्शनिकों में तीन परम्परायें मिलती । एक परम्परा गुण और पर्याय में भेद करती है जिसे 'भेदवाद' कहा गया है । यहाँ गुण सहभावी और पर्याय क्रमभानी है । इस सिद्धान्त के जनक काचार्य कुन्दकृत्य हैं जिनका समर्थन उमास्वामी, समन्तभद्र और पूज्यपाद ने किया है। द्वितीय सिद्धान्त 'अभेदवाद' हैं जिसमें गुण और पर्याय की तुल्यार्थक माना गया है । सिद्धसेन दिवाकर इस सिद्धान्त के प्रणेता कहे जाते हैं । उनका समर्थन हरिभद्र और हेमचन्द्र ने किया है। तृतीय सिद्धान्त अकलंकदेव का है । उनके अनुसार गुण और पर्याय पृथकू भी हैं और अपृथक भी हैं । इस सिद्धान्त को 'भेदाभेदवाद' कहा गया है । प्रभाचन्द्र, वादिराज, और अनन्तवीर्य ने उनका समर्थन किया है । साधारणत: इन तीनों सिद्धान्तों में कोई विशेष भेद नहीं। क्योंकि तीनों में उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य समान रूप से क्रमभावी के रूप में स्वीकार किये गये हैं ।
प्राचीनतत्व :
ata साहित्य में अनेकान्तवाद के प्राचीनतम बीज देखे जा सकते हैं । पालि त्रिपिटक में अनेक स्थलों पर यह वर्णित है कि महात्मा बुद्ध चार प्रकार से प्रश्नों का समाधान किया. करते थे ।
i) एकंस व्याकरणीय ( वस्तु के एक भाग का कथन ) । ji) पटिक्का व्याकरणीय ( प्रतिप्रश्न करके उत्तर देना) । iii)तीय (प्रश्नों को छोड़ देना) ।
iv) किमस्य क्याकरणीय (प्रश्नों को विभक्त करके उत्तर देता) । इस प्रकार के ख़ान की दिशा में भ. बुद्ध स्वयं को चिमणवादि कहते हैं 1* जिंनों का पगडंक मी विक्षु के लिए 'मिसम्यवादी' होने का विज्ञान करता है। उपर्युक्त चतुष्कोधिकनों के मूलतः दो भेद रहे होंगे-ए मादकीय और अतेकंस व्याकरणीय । जलेस व्याकरणीक के ही बाचानें हो
१. गुमपद्यन्तस्थासूत्र ५३८ चणसार, १५. तत्कार्यश्लोकवार्तिक, १५४ २. प्रजिअतिकाय (रो.) भाग २१.४६
१. जिन निमज्जनाद च विवानरेडा, १.१४.२२