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उत्तरकालीन बाचार्यों ने किया। जय-पराजय की इस व्यवस्था पर बात में तर्क-वितर्क नहीं ठं।
अनकान्तवाद अनेकान्तवाद दृष्टिमंदों का समन्वयात्मक रूप है । अपने विचारों का दुराग्रह बार दूसरे के विचारों की स्वीकृति मतभेद और संघर्ष को उत्पन करने में कारण बनते हैं। प्रत्येक चिन्तक और वक्ता किसी न किसी दृष्टि से अपने चिन्तन अषवा कपन में सत्यांश को समाहित किये हुए रहता है। उसे बस्वीकार करना सत्य को अस्वीकार करना है। इन सभी सत्यों पर विचार करना 'अनेकान्तवाद' है और उनकी अभिव्यक्ति प्रणालीको 'स्यावाद'
' जगत् में पार्ष अनन्त हैं और हर पदार्थ में अनन्त गुण है। उन्हें परिपूर्णत: जानने की शक्ति एक साधारण व्यक्ति में हो नहीं सकती। यही कारण है कि वह जिस पदार्य को बब जैसा देखता है, वैसा समझ लेता है। एक ही व्यक्ति पुत्र की अपेक्षा पिता है, पत्नी की अपेक्षा पति है, तो माता की अपेक्षा पुर है। उसे हम म मात्र पिता कह सकते हैं. न पति कह सकते है बीर न ही केवल पुष कह सकते हैं। अपेक्षाभेद से वह सब कुछ है। यदि हम इसे नहीं मानते तो परस्पर मतभेद और संघर्ष पैदा हो जाते हैं। यहां यह समझना आवश्यक है कि व्यक्ति के विषय में कषित उक्त प्रकार से पूषक-पृथक् मान्यता बिलकुल बसत्य नहीं है। इसी प्रकार से जिस किसी भी पदार्थको हम देखते-समझते हैं उसे अपनी-अपनी दृष्टि से समझते हैं। उन देखने-समझने वालों की अपनी-अपनी स्थितियां, समय, शक्ति और भाव रहते हैं जिनके मापार पर वे तत्सम्बन्धी विचार करते हैं। कि वे पदार्य के एक पक्ष पर विचार करते है अतः उनके विचार ऐकान्तिक होते है फिर भी निरादरणीय बोर असत्य नहीं कहे जा सकते ।
बन रसन ने इस सन्दर्भ में बड़ी गंभीरता पूर्वक सोचा और हिंसा की भूमिका में भनेकान्तवाद की प्रतिष्ठा की। मात्मा की विशुद्ध अवस्था अबतक प्रवट नहीं होती तबतक केवलज्ञान नहीं होगा और व्यक्ति पदार्थ को पूर्ण रूप से नहीं देख सकेगा। इस दोष को दूर करने के लिए जैन दार्शनिकों ने बनेकान्तवाद, नयवाद और स्यावाद सिद्धान्तों की रचना की। नयवाद बार स्यावाद बनेकान्तवाद के ही विभिन्न रूप है। बनेकान्तवाद पदार्थ के स्वरूप को दिन्वर्जन कराता है और नयवाद तथा स्यावाद उसके सम्यक् विवेचन करने में सहायता करता है।