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दोनों के लिए असाधनांग और बदोषोद्भावन इन दो निग्रहस्थानों को स्वीकार किया।
जैन परम्परा प्रारम्भ से ही सत्य और अहिंसा का प्रयोग जीवन के हर क्षेत्र में करती रही है । वाद-विवाद में भी उसने छल, जाति बादि के प्रयोग का कमी भी समर्थन नहीं किया । सिबसेन ने वादविशिका और अकलंक ने अष्टशती-अष्टसहनी में इसी तथ्य को प्रस्तुत किया है। यहाँ स्पष्ट कहा गया है कि बादी का कर्तव्य है कि वह प्रतिवादी के सिद्धान्तों में वास्तविक कमियों की बोर संकेत करे और फिर अपने मत की स्थापना करे। सत्य बोर बहिसा के मापार पर ही हर दृष्टिकोण को प्रस्तुत किया जाना चाहिए ।
पालि साहित्य में भी यह बैन परम्परा प्रतिविम्बित हुई है। सन्चक, अभय बोर बसिबन्धकपुत्तगामणी प्रसिर जैन वादी रहे हैं। सच्चक पार्श्वनाथ परम्परा का अनुयायी था। उसने सभी तीर्थकरों के साथ, संभवतः महावीर के साथ भी, वादविवाद किया था। अभय और असिवन्धकपुत्त गामणी ने भी बुद्ध के साथ शास्त्रार्थ किया था और उन्होंने उभयकोटिक प्रश्नों को उपस्थित किया था। इन प्रश्नों के माध्यम से प्रतिवादी बरके सिवान्तों में तथ्यसंगत कमियों का मात्र निर्देश करना वादियों का उद्देश्य था।
जैन और बौद्ध, दोनों परम्परायें साधारणतः इस क्षेत्र में समान विचारधारा वाली रही है । वैदिक परम्परा के विरोध में सर्वप्रथम धर्मकीति ने निग्रहस्थान का निरूपण किया। उन्होंने यह स्पष्ट कहा कि हीनाधिक बोलने आदि मात्र से प्रतिवादी को पराजित नहीं कहा जा सकता। उसका तो कर्तव्य यह है कि वह प्रतिवादी के कथन में यथार्थ दोषों का उद्घाटन करे। इस दृष्टि से मसाधनांगवचन और अदोषोद्भावन ये दो निग्रहस्थान स्वीकार किये गये हैं। पर धर्मकीर्ति यहाँ शास्त्रार्थ के पचड़े में पड़ गये। उन्होंने इन दोनों निबहस्थानों के सन्दर्भ में त्रिरूप, पञ्चरूप आदि की बात करने लगे। अकलंक ने इससे एक कदम आगे गढ़कर कहा कि वादी को इन बातों में उलझकर उसे अविनाभाषी साधन से स्वपन की स्थापना करनी चाहिए। प्रतिवादी का भी कर्तव्य है कि वह वादी के वचनों में यथा दूषण बताये और अपने पक्ष की स्थापना करे ।' अकलंक के इस मत का मनुकरण विद्यानन्द, प्रभावन मावि
१. वादन्याय, प.. २, मण्विम निकाय, (रो.) २३.४
संयुत्तनिकाय (रो.). प्रथम भाग, प. १७१मसिम निकाय (रो.), प्रथम भाव, पृ. ३९३ . मसती-पष्टसहनी, पृ. ८७
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