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वेद के किसी कर्ता का अनुस्मरण नहीं किया जाता। कर्तृक पनामों से उसमें विलक्षणता भी दिखाई देती है। अतः वेद अपौरुषेय है। परन्तु जैन दार्शनिक
व की मारपेयता को स्वीकार नहीं करते। उनका तर्क है कि अनेक मकान, बहरवादिकुछ ऐसी ची उपलब्ध होती हैं जिनके कर्ता का आजतक पता नहीं। तो क्या हम उन्हें 'बपरिषय' कहेंगे मोर फिर वेद की तैत्तरीप मादि शाखायें ऋषियों के नामों से स्पष्टत: सम्बर है। उनमें काय, माध्यन्दिन तैत्तिरीय बादिनासचिव उल्लेखनीया बादि के विषय में विवाद माना जाये तो कादम्बरीमादि ग्रन्थों के रविवालों के सन्दर्भ में भी विवाद है। फिर उन्हें भी बपौरपेय कहा जाना चाहिए । रचना की विलक्षणता आदि तर्क भी अगम्य है। अतः वेद को अपौरुषेय नहीं माना जा सकता।
शेषिक अनुमान बार शब्द की विषय-सामग्री समान मानकर शब्द को अनुमान के अन्तर्गत मान लेते है। उनकी दृष्टि में दोनों प्रमाण सामान्यग्राही और सम्बद अर्ष के ग्राहक हैं । अतः वे उन्हे पृथक् प्रमाण नहीं मानते।
बौर भी शब्द का अर्थ के साथ कोई सम्बन्ध न मानकर उसे प्रमाणकोटि से बाहर कर देते हैं। वे शब्द का अर्थ विधिल्प न मानकर उसे अन्यापोहरूप स्वीकार करते हैं।
परंतु जैन दार्शनिक 'आगम' को प्रमाण तो मानते है पर उसे पथक् न मानकर परोक्ष प्रमाण के अन्तर्गत रख देते हैं । उन्होंने उपर्युक्त सभी मान्यताओं का खण्डन कर अपने मत की प्रस्थापना की है। जैनाचार्यों के अनुसार श्रुत के तीन भेद है-प्रत्यक्ष निमित्तक, अनिमित्तक मौरमागमनिमित्तक । परोपदेश की सहायता लेकर जो श्रुत प्रत्यक्ष से उत्पन्न होता है वह प्रत्यक्षनिमित्तक है, जो अनुमान से उत्पन्न होता है वह बनुमाननिमित्तक है तथा जो श्रुत केवल परोपदेश से उत्पन होता है वह बागमनिमित्तक श्रुत कहलाता है। इसमें विशेषता बहकिर्मिक परम्परा मात्र वेद पर बाधारित है जबकि जैन परम्परा ने तीकरारा विष्ट वान्तों पर निर्मित प्रन्यों को भी व्यवहारतः प्रमाण माना है। इस वर्ष में वाचार्य समन्वमा ने कहा है कि यदि बाप्त, वीतराग बार सर्व किसी बात को कहता हो तो उसपर विश्वास कला चाहिए अन्यथा हेतु-ससे तत्त्वसिरिकी जानी चाहिए
वक्तर्वनाप्ते योतोः साध्यं तवेतुसाधितम् ।।
माप्ते बातरि तदाक्यात् साषितमागमसाषितम् ॥' १. न्यायपन, प..२१.७५६प्रवकमामात १.९१-४.१. २. भूतमविक प्रमानुमानापमानिमितन-प्रमाणसंह प..