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४) पनव-वैसे ही, यहाँ भी धूम है, और ५) निगमन-यहाँ भी बग्नि है।
इन पांच अवयवों में तीन पद है-'पर' (पर्वत), हेतु (धून)बार साध्य (अग्नि)। चतुर्य अवयव द्वितीय का बीर पंचम अवयव प्रथम का पुनःकरन मात्र है। पाश्चात्य पति में भी तीन पर मिलते हैं
१) सभी पदार्य विनाशशील है-विषेयवाक्य (क्याप्ति) २) सभी वस्त्र पदार्थ है -उद्देश्यवाक्य (पक्षवर्मता) ३) सभी वस्त्र विनाशशील है-निष्कर्षवाक्य (निनमन)
भारतीय न्यायशास्त्र का तृतीय अवयव-उदाहरण पाश्चात्य तर्कशास्त्र का विधेयवाक्य (Major Premise) है और द्वितीय तथा चतुर्ष अवयव उसका उद्देश्य वाक्य (Minor Premise) है। ४. बामन प्रमाण:
सामान्यतः आगम प्रमाण का सम्बन्ध शब्द प्रमाण से लिया जाता है पर वस्तुतः उसका विशेष सम्बन्ध श्रुतिविहित बागम से है। बाप्त पुरुष के वचनों से उत्पन्न होनेवाला अर्थसंवेदन 'भागम' है। आप्त वही हो सकता है जो बीतरानी सर्वश और हितोपदेशी हो। ऐसे आप्त के वचनों को ही प्रामाणिक माना जाता है। सम्मबीरम का सम्बन्ध :
दार्शनिक क्षत्र में बाप्त और बाप्तागम विवाद के विषय रहे हैं। मीमांसक शब्द और अर्थ का नित्य सम्बन्ध मानकर वेद को अनादि और अपौरुषेय मानते हैं। साथ ही वे शब्द का अर्थ सामान्य मात्र स्वीकार करते हैं। उनकी दृष्टि में गो व्यक्ति न होकर गोत्व 'सामान्य' होगा। वैयाकारणों के अनुसार वर्गपनि क्षणिक है । अतः वह अर्यबोधक नहीं हो सकती। इसलिए वे एक 'स्फोट' नामक तत्व मानते हैं जिससे बर्थबोष हो जाता है। उनके अनुसार यह वर्षबोधक शक्ति मात्र संस्कृत शब्दों में ही है, पानि-सात शब्दों में नहीं । उनका यह मत अत्यन्त साम्प्रदायिकता और संकीर्णता से भरा हुला है। संस्कृत के समान पानि-प्राकृत भाषाबोंके शब्दों में भी बर्षबोषकता, विशिष्टार्पयोतनशीलता बादि तत्त्व सत्रिहत हैं। इन भाषाओं का उपलब्ध विद्याल साहित्य बार उसका जनमासिक तत्व इसका प्रामाणिक तथ्य है। देवकीपीयता:
वेद की अपौरुषेयता में मीमांसकों का प्रमुख तर्क यह है कि उसके कर्ता का स्मरण नहीं होता । जैसे-आकाश । वैविक कमी का अनुष्ठान करते समय भी
1. बाप्तवचनावापिन्तगर्व संवेदनमागमः- प्रमाणमयतत्वाक... ..